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यह सीधा-सादा वाक्य ठेठ भगवान पद की प्राप्ति का मार्ग आसान कर देता है! कढ़ापा और अजंपा ये शब्द गुजराती में बहुत ही सामान्य रूप से उपयोग किए जाते हैं, लेकिन इनकी सही और संपूर्ण समझ जिस प्रकार से परम पूज्य दादाश्री ने दी है, वह तो अद्भुत ही है!
किसी भी जीव को दुःख दें, तो मोक्ष रुक जाता है, फिर यह नौकर तो मनुष्य रूप में है, इतना ही नहीं वह हमारा आश्रित और सेवक है! हृदयस्पर्शी शब्दों से नौकर के प्रति हमारे अभाव को ज्ञानी किस प्रकार भाव में बदल देते हैं!
खुद की किफायती प्रकृति से घर के सभी लोगों को दुःख होता है, ऐसा समझ में आने के बाद 'मेरी किफायत किए बगैर घर कैसे चलेगा?' का ज्ञान बदलकर 'मन नोबल रहेगा तभी सब को सुख दिया जा सकेगा,' ऐसा ज्ञान फिट हो जाएगा, तभी उलझनें बंद होंगी!
सफाई के आग्रही को परम पूज्य दादाश्री कैसा थर्मामीटर दिखाते
'सफाई इस हद तक की एडमिट करनी अच्छी है कि फिर मैला हो जाए तो भी हमें चिंता नहीं हो।' - दादाश्री
पूरी दुनिया दो नुकसान उठाती है : एक तो वस्तु खो दी - वह भौतिक नुकसान, और दूसरा - कढ़ापा-अजंपा किया, वह आध्यात्मिक नुकसान! जबकि ज्ञानी एक ही नुकसान उठाते हैं, सिर्फ भौतिक ही, कि जो अनिवार्य रूप से होना ही था, वह।
प्याले फूट जाएँ तब, नए आएँगे अथवा 'अच्छा हुआ बला टली' ऐसा करके जो व्यक्ति आनंद में रह गया उसे, चिंता करने की जगह पर आनंद में रहा, इसलिए पुण्य बँधता है! नुकसान में भी फायदा करने की कितनी सुंदर कला!
किसी चीज़ की ममता ही उसका वियोग होने पर दुःख देती है, लेकिन वे प्याले जब पड़ोसी के वहाँ फूटें, तब जैसा रहता है, वैसा ही
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