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आप्तवाणी-७
हैं। जब विकल्प बंद हो जाएँ, तब सहज रूप से जो विचार आ रहे थे. वे भी बंद हो जाते हैं। घोर अँधेरा हो जाता है, फिर कुछ भी दिखाई नहीं देता! संकल्प अर्थात् 'मेरा' और विकल्प अर्थात् 'मैं,' जब वे दोनों बंद हो जाएँ, तब मर जाने के विचार आते हैं।
अपने यहाँ पर एक बनिये आते थे, उन्हें बहुत चिंता होती रहती थी। इसलिए किसीने सिखाया कि आप नक्की करो कि, 'यह मेरा नहीं है, यह मेरा नहीं है,' तो सबकुछ छूट जाएगा! वह बनिया बेचारा 'मेरा नहीं है, मेरा नहीं है' करते-करते पागल जैसा हो गया! अरे, तेरा क्या है वह जाने बिना तू खड़ा कहाँ रहेगा? यानी तेरा क्या है, वह जान ले एक बार। बाकी, यों तो कहीं ममता छटती होगी? अब ये रोज़ कहती हैं कि, 'यह डॉक्टर मेरे पति नहीं हैं, यह बेटा मेरा नहीं है, यह बंगला मेरा नहीं है।' अब इसे ज्ञान तो नहीं मिला था। यदि उससे पहले, 'मेरे नहीं है, मेरे नहीं है' कहे तो दिमाग़ पागल हो जाएगा। तो 'मेरा' क्या है और 'मैं आत्मा हूँ' ऐसा सब जिसे पता चल गया है, उसके बाद 'यह मेरा नहीं है' बोले तो चलेगा। यह तो, पहले खुद का तो ठिकाना नहीं और बोलते रहें, इसलिए ये लोग मर जाते हैं न! जब 'मैं' और 'मेरा', दोनों नहीं दिखते, तब फिर आत्महत्या करके मर जाता है! 'हम' उसके सिर पर हाथ रखकर, आशीर्वाद देकर मशीन शुरू कर देते हैं, बोल कि, 'मैं चोर हूँ, मैं चोर हूँ और चोरी करना मेरा धंधा है, चोरी करना वह मेरा धंधा है।' फिर उसका शुरू हो जाता है, उसके बाद वह जीवित रहता है। कुछ भी करके जीवित रह न, यहाँ! जब पुलिस पकड़ेगी, तब तुझे दूसरे विचार आएँगे कि, 'अब फिर कभी चोरी नहीं करनी है,' लेकिन यदि सामने फुटबॉल फेंकोगे तभी सामनेवाला वापस फेंकेगा न! लेकिन हम यदि फुटबॉल फेंके ही नहीं, तब फिर सामने से कौन फेंकेगा?