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आप्तवाणी-७
पीछे पूरा झुंड चलता ही रहता है! कितना टेढ़ा रास्ता है, ऐसा देखते-करते नहीं हैं। यह तो सरकार ने नियम बनाए, इसलिए सीधे रास्ते बनवाए। पढ़े-लिखे हुए लोगों ने सीधे रास्ते बनवाए, नहीं तो पहले तो एक मील तक जाने के लिए तीन मील का उल्टा रास्ता बनाना पड़ता था। ऐसे सब रास्ते हुआ करते थे।
अब भोगने का तरीका ऐसा नहीं है कि सामनेवाले को हटा दो। सामनेवाले को सुख हो ऐसा कुछ करो। अपने संपर्क में आनेवाले, परिचय में आनेवालों को सभी को किस तरह सुख हो, अपने ग्राहक को किस तरह सुख हो, ऐसा कुछ करो। पहले तो पड़ोसी के साथ भलाई करनी है।
यह तो जगत् है, इसलिए एक तरफ ऐसा कहते हैं कि, 'चिंता से चतुराई घटे, घटे रूप, गुण, ज्ञान।' और दूसरी तरफ कहते हैं कि, 'जो चिंता नहीं करे वह खर कहलाता है, गधा कहलाता है। यानी जगत् दोनों तरफ से मारता है, अतः वे क्या कहना चाहते हैं कि कम टु द नॉर्मल। अब ध्यान रखने और चिंता करने में बहुत फर्क है। ध्यान रखना, वह जागृति है और चिंता यानी जी जलाते रहना।
चिंता का रूट कॉज़? इगोइज़म जी जलता रहे वैसी चिंता तो काम की ही नहीं! जो शरीर को नुकसान पहुँचाए और अपने पास जो चीज़ आनेवाली थी, उसमें भी फिर रूकावट डाले। चिंता से ही ऐसे संयोग खड़े हो जाते हैं। ऐसे कुछ विचार करने हैं कि हित क्या है, अहित क्या है, लेकिन चिंता करने का क्या मतलब है? उसे इगोइज़म कहा है। वैसा इगोइज़म नहीं होना चाहिए। 'मैं कुछ हूँ और मैं ही चला रहा हूँ' उससे उसे चिंता होती है और 'मैं होऊँगा तभी इस केस का निकाल होगा।' इससे चिंता होती है। अतः इगोइज़मवाले भाग का ऑपरेशन कर देना चाहिए, उसके बाद जो विचार रहे, भले