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आप्तवाणी-६
भी खपा देते हैं ! इसलिए उन्होंने जो बात की है वह बात उनके लिए की है जो 'ज्ञानी' नहीं हैं।
प्रश्नकर्ता : 'ज्ञानी' का प्रकृति पर प्रभुत्व होता है?
दादाश्री : नहीं, नहीं होता! परंतु प्रकृति का उन पर असर नहीं होता। खुद की स्वतंत्रता पर प्रकृति का असर नहीं होता, परंतु प्रकृति के अधीन तो महावीर भगवान को भी रहना पड़ता था!
प्रश्नकर्ता : आपका ज्ञान लेने के बावजूद भी उसे समाधि नहीं बरतती हो, उसकी ‘लिखी हुई स्लेट' हो, लेकिन क्या ऐसा व्यवस्थित के हाथ में है कि किसी दिन स्लेट पूरी तरह से साफ हो जाएगी?
दादाश्री : इसमें 'व्यवस्थित' शक्ति कुछ नुकसान नहीं करती। खुद की अजागृति नुकसान करती है ! यदि मेरे दिए हुए वाक्यों पर अमल करे, तो उसे निरंतर समाधि रहे। खुद को 'जागृत' रहने की ज़रूरत है। यह 'ज्ञान' मैं देता हूँ, तब आपको आत्मा की जागृति में ला देता हूँ। आत्मा की संपूर्ण जागृति को केवलज्ञान कहा गया है। जागृति उत्पन्न होती है, तब खुद के सारे ही दोष दिखते हैं ! खुद के रोज़ के पाँच सौ-पाँच सौ दोष 'खुद' देख सकता है! जिन दोषों को देखे, वे दोष अवश्य जाएँगे!
अपने यहाँ यह 'विज्ञान' है। खुद के दोष दिखने लगें, तबसे उसकी भगवान बनने की शुरूआत हुई। नहीं तो खुद का दोष किसी को भी दिखता नहीं। खुद जज, खुद वकील है और खुद ही अभियुक्त है तो, खुद अपने ही दोष किस तरह देख सकेगा?