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आप्तवाणी-६
प्रश्नकर्ता : हम रायशी और देवशी प्रतिक्रमण करते हैं, वह क्या गलत है?
दादाश्री : प्रतिक्रमण तो शूट एट साइट होना चाहिए, उधार नहीं रखना चाहिए। ये बहीखाते भी उधार नहीं रखते हैं। वैसे ही प्रतिक्रमण भी उधार नहीं रखने चाहिए।
प्रश्नकर्ता : जीव तो सतत कर्म के बंधन बाँधते ही रहते हैं, तो उसे क्या सतत प्रतिक्रमण करते रहना है?
दादाश्री : हाँ, करना ही पडेगा! इनमें से कई महात्मा रोज़ पाँच सौ-पाँच सौ प्रतिक्रमण करते हैं!
प्रश्नकर्ता : वह तो भाव प्रतिक्रमण है, क्रिया प्रतिक्रमण तो नहीं हो पाएँगे न?
दादाश्री : नहीं, क्रिया में प्रतिक्रमण होता ही नहीं। बहुत हुआ तो उससे मन अच्छा रहेगा।
प्रश्नकर्ता : उससे कर्मनिर्जरा होती है या नहीं?
दादाश्री : निर्जरा (आत्मप्रदेश में से कर्मों का अलग होना) तो हर एक जीव में हो रही है। परंतु वह अच्छा भाव है कि मुझे प्रतिक्रमण करना है, ताकि निर्जरा अच्छी हो। वर्ना प्रतिक्रमण तो शूट एट साइट होना चाहिए। आप करते हो, वह द्रव्य प्रतिक्रमण है, भाव प्रतिक्रमण चाहिए।
प्रश्नकर्ता : द्रव्य के साथ भाव होता है न?
दादाश्री : नहीं, परंतु सिर्फ द्रव्य ही होता है, भाव नहीं होता। क्योंकि दूषमकाल के जीवों द्वारा भाव रखना, बहुत मुश्किल चीज़ है। वह तो 'ज्ञानीपुरुष' की कृपा हो और वे सिर पर हाथ रखें, उसके बाद भाव उत्पन्न होते हैं। नहीं तो भाव उत्पन्न नहीं होते।
'ज्ञानीपुरुष' किसे कहते हैं? कि जिन्हें पर-परिणति ही नहीं रहती। निरंतर स्वभाव-परिणति होती है। रात-दिन हमेशा स्वभाव-परिणति रहती