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आप्तवाणी-६
नहीं था, तब तक मनुष्य अटकण में ही पड़ेगा न? परंतु शाश्वत सुख उत्पन्न होने के बाद फिर किसलिए? सच्चा सुख किसलिए उत्पन्न नहीं होता? वह इस अटकण के कारण नहीं आता!
प्रश्नकर्ता : परंतु दादा, चौबीसों घंटे आत्मा का अनुभव, लक्ष्य और प्रतीति रहती हो, तो फिर अटकण का प्रश्न रहेगा क्या?
दादाश्री : नहीं, ऐसा सभी को रहता है, परंतु अटकण तो अंदर होती है न, अटकण तो ढूँढ निकालनी चाहिए कि अटकण कहाँ पर है?
अटकण जाने के बाद जगत् आप पर आफ़रीन होता जाएगा। आपको देखते ही जगत् के जीवों को आनंद होता जाएगा। यह तो अटकण के कारण आनंद नहीं होता।
यह दर्पण है, वह एक ही व्यक्ति का चेहरा दिखाता है या सभी के चेहरे दिखाता है? जो कोई चेहरा सामने रखे, उसे दिखाता है। वैसा ही, दर्पण जैसा क्लीएरन्स हो जाए, तब काम का!
इस अटकण के कारण लोगों को अट्रेक्शन नहीं होता, अट्रेक्शन होना चाहिए, फिर उसका शब्द ही 'ब्रह्मवाक्य' कहलाता है। इसलिए कहाँ पर अटकण है, वह ढूँढ निकालो। अनुभव-लक्ष्य और प्रतीति तो अन्य सभी को भी रहती है, परंतु अट्रेक्शन किसलिए नहीं बढ़ता? अट्रेक्शन होना तो चाहिए न जगत् में? नक़द अर्थात् नक़द। वह उधार तो नहीं दिखना चाहिए न? यानी भीतर में कारण ढूँढ निकालने चाहिए। अटकण तो, दस दिनों तक होटल नहीं दिखे तब तक कुछ भी नहीं होता। परंतु होटल दिखा तो घुस जाता है! संयोग मिले कि गलगलिया हो जाते हैं!
आपने एक व्यक्ति की शराब छुड़वाई हो, तो वह फिर सत्संग में बैठे तो शांति में रहता है। कई दिनों तक वह शराब को भूल जाता है, फिर किसी दिन आपके साथ घूमने गया और दुकान का बोर्ड पढ़ा कि, 'दारू ची दुकान' कि तुरंत उसके अंदर सबकुछ बदल जाता है, उसे अंदर गलगलिया हो जाता है। तब वह आपसे क्या कहेगा, “चंदूभाई, मैं 'मेकवोटर' करके आता हूँ।' अरे मुए, रास्ते में मेकवोटर करने की बात