________________
१६०
आप्तवाणी-६
अरे भाई, मुझे कहाँ दुःख दिया है? वह तो आपको ऐसा लगता है। इसे दुःख नहीं कहते, दुःख तो यहाँ पर छेद करके खाना पड़े, यहाँ पर छेद करके पेशाब करना पड़े, उसे दुःख कहते हैं। ये छोटे बच्चे हैं, उन्हें बहुत दुःख होता है बेचारों को। उसे जब दुःख होता है तब रोता ज़रूर है, परंतु बोलता नहीं कि 'मुझे यहाँ दुःख रहा है!' और ये अभागे लोग भोजन करते समय नौ रोटियाँ खा जाते हैं और कहेंगे कि 'मैं दुःखी हूँ!' क्या कहें इन लोगों को? दुःख की परिभाषा होनी चाहिए या नहीं होनी चाहिए? और सुख की परिभाषा होनी चाहिए कि 'सुख किसे कहते हैं?'
संसार में सुख अपार है परंतु लोग भोग नहीं पाते! कैसे सुख हैं! खीर भी साथ में मिलती है और मालपूआ भी मिलता है, वह भी फिर असली घी के! घारी (एक प्रकार की मिठाई) मिलती है, दाल, चावल, सब्जी मिलें, फिर भी ये दु:खी! इन मनुष्यों के सिवा दूसरे सभी जानवरों को पूछकर आओ कि, 'दुःख है?' इसी तरह मनुष्यों में भी हल्की क़ौम में पूछकर आओ?
प्रश्नकर्ता : लेकिन आप तो कहते हैं कि घारी खानी है और फिर उसमें तन्मय नहीं होना है।
दादाश्री : वह आपकी लाइन की बात है। आपको जैसा राज करना आए, वैसा राज करो! कैसे सुख सामने आकर खड़े हैं, तब दुःख का गाना गाते रहते हैं!
__इस जगत् में कभी भी रोने-धोने जैसा है ही नहीं। सिर्फ बीसइक्कीस वर्ष की जवान लड़की हो और उसका कोई बच्चा वगैरह नहीं हो और वह विधवा हो गई हो, तो उसके लिए रोने-धोने जैसा है। रोनाधोना, यानी क्लेश करने जैसी तो कोई वस्तु है ही नहीं जगत् में! फिर भी पूरा दिन क्लेश, क्लेश और क्लेश! अरे, क्या पढ़े? आपने कैसी पढ़ाई की है? इसे पढ़ना-लिखना कहेंगे ही नहीं न? 'थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी' समझनी चाहिए न?
सासों से पूछे तब कहेंगी, 'मेरी बहू खराब है।' उसी प्रकार, सभी