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आप्तवाणी- -६
हूँ' करके भाग जाना। निराकुलता में से थोड़ी भी व्याकुलता उत्पन्न हुई कि ‘यह हमारा स्थान नहीं है' करके भाग जाना।
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प्रश्नकर्ता : यहीं पर मुझसे भूल हो जाती है। जब आकुलताव्याकुलता होती है तब मैं भाग नहीं जाता, बल्कि सामने बैठा रहता हूँ।
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दादाश्री : अभी बैठने जैसा नहीं है । आगे जाकर बैठना। अभी तक पूरी तरह शक्ति नहीं आई है, शक्ति आए बिना बैठोगे तो मार खाओगे। 'अपना' तो निराकुलता का प्रदेश ! जहाँ पर कोई भी आकुलता-व्याकुलता है, वहाँ पर कर्म बंधेंगे। निराकुलता से कर्म नहीं बंधेगे। व्याकुल होकर इस संसार का कोई भी फायदा नहीं होगा और जो होगा वह तो व्यवस्थित है, इसलिए निराकुलता में रहना चाहिए । जब तक शुद्ध उपयोग रहेगा, तब तक निराकुलता रहेगी।
हमारी बुद्धि बचपन में ऐसी थी । सामनेवाले के लिए 'स्पीडी' अभिप्राय बना देती थी। किसी के भी लिए स्पीडी अभिप्राय बना देती थी। इसलिए मैं समझ सकता हूँ कि आपका यह सब कैसा चल रहा होगा?
वास्तव में तो किसी के लिए भी अभिप्राय रखने जैसा जगत् है ही नहीं। किसी के लिए अभिप्राय रखना, वही अपना बंधन है और किसी के लिए अभिप्राय नहीं रहे, वही अपना मोक्ष है । किसी का और हमारा क्या लेना-देना? वह अपने कर्म भोग रहा है, हम अपने कर्म भोग रहे हैं । सब अपने-अपने कर्म भोग रहे हैं। उसमें किसी का लेना-देना ही नहीं है, किसी के लिए अभिप्राय बनाने की ज़रूरत ही नहीं है ।
प्रश्नकर्ता : अब हमारे अभिप्राय कहाँ पड़ जाते हैं, व्यवहार में पड़ते हैं। यह तो ऐसा होता है कि मुझे पता भी नहीं होता और कहेंगे, 'इन चंदूभाई से कहा है, आपको ५००० रुपये दे गए न?' तो मुझे पता भी नहीं चलता कि यह मेरे नाम से झूठ बोलकर आया है । इसलिए फिर अभिप्राय पड़ जाता है कि यह झूठा है, गलत है।
दादाश्री : भगवान ने तो यहाँ तक कहा है कि कल एक व्यक्ति आपकी जेब में से सौ रुपये ले गया और आपको भनक लगने से या