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पर फिर क्या घाव लगेंगे? सामनेवाले को दुःख हो जाए, खुद वैसी वाणी बोल ले तो वहाँ पर प्रतिक्रमण ही खुद का और परिणाम स्वरूप सामनेवाले का, सर्व प्रकार से सोल्युशन ला देता है।
इस जगत् में हर एक बात को पॉज़िटिव लेना है। नेगेटिव की तरफ मुड़े कि खुद उल्टा चलेगा और सामनेवाले को भी उल्टा चलाएगा।
व्यवहार, वह पहेलियों का संग्रहस्थान है। एक पूरी होती है और दूसरी पहेली मुँह फाड़कर खड़ी ही होती है। खुद स्वयं को पहचान ले, वहाँ पर जगत् का विराम होता है। यह जगत् दूसरों के झमेले में पड़ने के लिए नहीं है। खुद की ‘सेफसाइड' कर लेने के लिए यह जगत् है।
जब तक खुद को ऐसी बिलीफ़ पड़ी हुई है कि 'मुझसे सामनेवाले को दुःख होता है।' तब तक सामनेवाले को उन स्पंदनों के परिणाम स्वरूप दुःख होगा ही। और ऐसे जो दिखता है, वह खुद के ही सेन्सिटिवनेस के गुण के कारण है। वह एक प्रकार का अहंकार ही है। वह अहंकार रहे तब तक सामनेवाले को दु:ख के परिणाम अनुभव होंगे ही। वह अहंकार जब विलय होगा, तब किसी को भी हमसे दुःख परिणाम उत्पन्न होंगे ही नहीं। हम चोखे (स्वच्छ, अच्छा, शुद्ध, साफ) हो गए तो जगत् चोखा ही है।
ज्ञानी जिस मार्ग द्वारा असर से मुक्त हुए वही, उनका देखा हुआ, जाना हुआ और अनुभव किया हुआ है, यह मार्ग हमें जगत् से छूटने का रास्ता बता देता है।
आ चुकी वेदना से मुक्त होने के लिए दूसरे रंजित करनेवाले पर्यायों का सहारा लेकर जगत् दुःखमुक्त होने के लिए प्रयत्न करता है और नया जोखिम मोल लेता है। ज्ञानी इस तरह आत्मवीर्य को भुना नहीं देते, वे तो 'समभाव से निकाल करते हैं।
'ज्ञानीपुरुष' को कोई चाहे जितनी गालियाँ दें फिर भी ज्ञानी उन्हें कहते हैं, 'कोई हर्ज नहीं है, तू यहाँ आता रहना। एक दिन तेरा हल आ जाएगा।' यह तो कैसी ग़ज़ब की करुणा और समता!
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