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आप्तवाणी-६
प्रश्नकर्ता : द्वंद्व के अंदर का फँसाव और घर्षण है, वह तो लगातार जिंदगी का एक हिस्सा ही है। जहाँ-तहाँ द्वंद्व आकर खड़ा ही रहता है।
दादाश्री : इस द्वंद्व में ही जगत् फँसा हुआ है न! और 'ज्ञानी' द्वंद्वातीत होते हैं। वे फायदे को फायदा समझते हैं और नुकसान को नुकसान समझते हैं। परंतु उन्हें नुकसान नुकसान के रूप में असर नहीं करता और फायदा फायदे के रूप में असर नहीं करता। फायदे-नुकसान किसमें से निकलते हैं? 'मेरे' में से गए या बाहर से गए? वह सबकुछ खुद जानते हैं।
बुद्धि की समाप्ति प्रश्नकर्ता : बुद्धि अभी भी दख़ल करती है, तो क्या करें?
दादाश्री : बुद्धि इस तरफ दख़ल करे तो आप वहाँ से दृष्टि फेर लेना। आपको रास्ते में कोई नापसंद व्यक्ति मिले तो आप ऐसे मुँह फेर लेते हैं या नहीं? ऐसे ही जो अपने में दख़ल करता है, उससे दृष्टि फेर लेना! दख़ल कौन करता है? बुद्धि ! बुद्धि का स्वभाव क्या है कि संसार से बाहर निकलने ही नहीं देती।
प्रश्नकर्ता : बुद्धि समाप्त कब होगी?
दादाश्री : यदि आप उसकी ओर बहुत समय तक नहीं देखोगे, दृष्टि फेरकर रखोगे, तब फिर वह समझ जाएगी। वह खुद ही फिर बंद हो जाएगी। उसे आप बहुत मान दो, उसका कहा एक्सेप्ट करो, उसकी सलाह मानो, तब तक वह दख़ल करती रहेगी।
प्रश्नकर्ता : मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार पर अपना प्रभाव पड़ना चाहिए न?
दादाश्री : मशीनरी पर कभी भी प्रभाव पड़ता ही नहीं। इसलिए मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार पर प्रभाव पड़ता ही नहीं। वह तो अंत:करण खाली हो जाए, तब अपने आप ही सब ठिकाने पर आ जाता है। 'इनका' साथ नहीं दें और 'इन्हें देखते ही रहें, तो आप मुक्त ही हैं। जितने समय तक 'आप' इन्हें देखते रहें, उतने समय चित्त की शुद्धि होती रहेगी। यदि