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आप्तवाणी-६
है और इतना ही जिसे फिट हो गया न, वह सहजसुख के स्वपद में रहेगा । वह फिर धीरे-धीरे परिपूर्ण होगा !
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आनंद दो प्रकार के हैं : एक, हमें बिज़नेस में खूब रुपये मिल जाएँ, अच्छा सौदा हो जाए, उस घड़ी आनंद होता है । परंतु वह आकुलताव्याकुलतावाला आनंद, मूर्च्छित आनंद कहलाता है । बेटे की शादी करे, बेटी की शादी करे, उस घड़ी आनंद होता है, वह भी आकुलता - व्याकुलतावाला आनंद, मूर्च्छित आनंद कहलाता है, और जब निराकुल आनंद हो, तब समझना कि आत्मा प्राप्त हुआ ।
प्रश्नकर्ता : निराकुल आनंद किसे कहते हैं?
दादाश्री : यहाँ सत्संग में जो सारा आनंद होता है, वह निराकुल आनंद है। यहाँ पर आकुलता - व्याकुलता नहीं रहती ।
आकुलता-व्याकुलतावाले आनंद में क्या होता है कि अंदर झंझट चलता रहता है। यहाँ झंझट बंद रहता है और जगत् विस्मृत रहा करता है। अभी किसी वस्तु को लेकर आनंद आए तो हम समझ जाएँगे कि यह पौद्गलिक आनंद है। और यह तो सहज सुख ! अर्थात् निराकुल आनंद । आकुलता-व्याकुलता नहीं । जैसे कि स्थिर हो गए हों, ऐसा हमें लगता है। थोड़ा भी उन्माद नहीं रहता ।
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जिनके परिचय में रहें, उन्हीं जैसे हम बन जाते हैं।
प्रश्नकर्ता : आपने जो दिया है उससे, इस काल में आप जिस स्थिति तक पहुँचे हैं, उस स्थिति तक हम पहुँच सकते हैं क्या?
दादाश्री : हमें और काम ही क्या है? आपको निराकुलता प्राप्त हुई है न?
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : निराकुलता, वह सिद्ध भगवान का १/८ गुण है । १/८ सिद्ध हो गए। फिर चौदह आने बाकी रहा । वह बाद में हो जाएगा। सिद्ध हो चुके न? मुहर लग गई न? फिर क्या भय? अभी कोई ऊपर से आए