________________
७५
प्रश्नकर्ता : यह होता है, वह आकर्षण है, तो वह कमज़ोरी नहीं मानी जाएगी?
आप्तवाणी-६
दादाश्री : नहीं, कमज़ोरी नहीं मानी जाएगी। उसका और आत्मा का कोई लेना-देना नहीं है । सिर्फ आपको खुद का सुख नहीं आने देगा। इसलिए एक-दो जन्म अधिक करवाएगा, उसका उपाय भी है। अपने यहाँ ये सब लोग जो 'सामायिक' करते हैं, उस सामायिक में उस विषय को रखकर ध्यान करते हैं तो वह विषय विलय होता जाता है, खत्म हो जाता है। जो-जो आपको विलय कर देना हो, उसे यहाँ पर विलय किया जा सकता है।
प्रश्नकर्ता : ऐसा कुछ हो, तब वह काम का है न !
दादाश्री : है। यहाँ सबकुछ ही है । यहाँ आपको सुबकुछ ही दिखाएँगे। आपको किसी जगह पर जीभ का स्वाद बाधक हो, तो वही विषय ‘सामायिक' में रखो। और जैसा बताएँ उस अनुसार उसे देखते रहो। सिर्फ देखने से ही वे सब गाँठें विलय हो जाएँगी।
विचार आए बिना कभी भी आकर्षण नहीं होता । आकर्षण होनेवाला हो, तब भीतर विचार आते हैं । विचार मन में से आते हैं, और मन गाँठों का बना हुआ है । जिसके विचार अधिक आएँ, वह गाँठ बड़ी होती है।
संसार चलाने के लिए आत्मा अकर्ता
भीतर जो भाव होते हैं, वे भावक करवाते हैं । भीतर भावक, क्रोधक, लोभक, मानक हैं। ये सभी बैठे हैं, वे भाव करवाते हैं । उसमें यदि भाव्य मिल जाए, भाव्य अर्थात् आत्मा (प्रतिष्ठित) यदि तन्मयाकार हो जाए तो नया चित्रण होता है ।
यह जो संसार है, वह आत्मा की हाज़िरी से चलता है । यदि आत्मा उसमें ज़रा सा भी तन्मयाकार नहीं होगा, फिर भी वह चल सकता है । इसलिए हमने यह ‘व्यवस्थित' की खोज की है । 'क्रमिक' में तो ऐसा