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आप्तवाणी-२
ही तो आत्मा को अलख निरंजन कहा है! लेकिन यहाँ एक घंटे में आपको लक्ष्य बैठ जाता है! यह 'अक्रम-ज्ञानी' की सिद्धियाँ-रिद्धियाँ, देवीदेवताओं की कृपा, उन सबके कारण एक घंटे में ग़ज़ब का पद आपको प्राप्त हो जाता है!
खरा मोक्ष मार्ग प्रकट हुआ है। लेकिन अगर समझ में आए तो काम हो जाए, और समझ में नहीं आया तो भटक मरा!
वह 'क्रमिक विज्ञान' है और यह 'अक्रम विज्ञान' है। यह ज्ञान तो 'वीतरागों' का ही है। 'ज्ञान' में फर्क नहीं है। हम 'ज्ञान' देते हैं, उसके बाद आपको आत्मानुभव हो जाता है, फिर क्या काम बाकी बचा? 'ज्ञानीपुरुष' की आज्ञा पालनी है। आज्ञा वही धर्म और आज्ञा वही तप। और 'हमारी' आज्ञा संसार में बिल्कुल भी बाधक नहीं होती। संसार में रहने के बावजूद भी संसार स्पर्श नहीं करे, ऐसा यह अक्रम विज्ञान है।
अपने यहाँ पर 'यह' 'अक्रम मार्ग' बहुत आसान, सरल, छोटा सा और भगवान के एक-एक शब्द जिसमें समाये हैं, ऐसा है! नक़द मोक्ष मार्ग है, इसलिए आपसे जितना इसके पीछे पड़ा जा सके उतना कम है, ऐसा समझना। नहीं तो मन की ग्रंथियाँ विलय हो जाएँ, ऐसा रास्ता तो कहीं होता होगा? मन को स्थिर किया जाए ऐसे रास्ते तो बाहर होते हैं, लेकिन वह विलय नहीं हो पाता। मन को स्थिर करने की दवाई एकाग्रता है, लेकिन उससे अहंकार बढ़ता है। अपने यहाँ तो मन स्थिर हो जाता है, ग्रंथियाँ पिघलती हैं और अहंकार का बीच में दख़ल ही नहीं न! जैसे अहंकार को पेन्शन नहीं दे दिया हो, वैसा!
'क्रमिक मार्ग' में तो कुछ भाता हो और अधिक खा जाएँ तो उपाधि और हमें तो कोई उपाधि ही नहीं है न! और हमें तो धर्म, धर्म बनकर परिणामित होता है और अंदर सुख छलकता है।
अपने यहाँ तो गुरु-शिष्य का भेद रखा ही नहीं है। आपको हमारे साथ ही बैठाया है। निश्चय से बारहवें गुणस्थानक में हमारे साथ ही बैठाया है और वह भी शुक्लध्यान में। अपना यह किस आधार पर निश्चय से