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आप्तवाणी-२
महाराजने कहा, 'मुझे आपकी बात स्वीकार नहीं होती।'
मैंने कहा : 'महाराज, मेरी बात आपको किस तरह मानने में आए? मेरी बात गलत होगी, आपको ऐसा लग रहा है, वह बात मैं भी कबूल करता हूँ। क्योंकि जो व्यक्ति जो चीज़ कर रहा होता है, उसे वह सच ही लगती है। कसाई होता है न, उसे भी वह जो करता है, उसमें पाप है, ऐसा नहीं लगता। क्योंकि जो कार्य करे उसका आवरण आ जाता है, उसमें सत्-असत् का विवेक चला जाता है। फिर क्या हो? जहाँ सत्असत् का विवेक चला जाए, फिर चाहे कुछ भी करने से, लाख जन्मों तक भी कभी सत्य समझ में नहीं आएगा।' इन गच्छवाले महाराजों से विनती करके कहता हूँ कि, 'महाराज, क्या आप मोक्ष में जाने के लिए यह तप कर रहे हैं?' अगर बुरा लगे तो गालियाँ देना!
महाराज : ‘हाँ। और किसके लिए करते हैं?'
मैंने कहा : “भगवान ने कहा है कि मोक्ष में जाने के लिए किए जानेवाला तप तो अदीठ होता है, कोई देख नहीं सकता। आपके तप तो व्यायामशाला जैसे हैं। क्या आप 'व्यायाम' करते हो? मोक्ष में जाने के लिए ऐसे तप नहीं होते हैं।" भगवान ने ऐसे तप के लिए मना किया है। भगवान ने कहा है कि जब तक देह सहज नहीं होगी, तब तक सहज आत्मा प्राप्त नहीं हो सकेगा। जब देह सहज होगी या फिर आत्मा सहज हो जाए यानी कि देह और आत्मा दोनों में से एक सहज हो जाए तो दोनों सहज हो जाएँगे। तब जाकर काम होगा।
इन लोगों ने मूर्ति को क्यों हटा दिया? मूर्ति को भजने से प्रमाद आ जाता है। मूर्ति तो डाँटती नहीं है न? मूर्ति ऐसा तो नहीं कहती न कि आपने सामायिक क्यों नहीं की? और गुरु हों, तो डाँटते तो हैं ही। लेकिन यह तो अनर्थ हो गया और मूर्ति को जड़ कहने लगे! मूर्ति, मंदिर सभी की ज़रूरत है। जब तक अमूर्त नहीं मिलें, तब तक यह डोरी छोड़नी नहीं चाहिए। यह तो भारत का साइन्स है! यह तो मूर्ति हो तो मंदिर बनते हैं और मंदिर बनें तो उसे पुजारी-वुजारी सब मिल जाते हैं।