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________________ ३० आप्तवाणी-२ इस संसार में तो भीतर ही धड़ाका होता है। घड़ीभर शांति नहीं और फिर रहते तो हैं दो-दो लाख के फ्लेट में। किस तरह जीते हैं, वह भी आश्चर्य है न! लेकिन करे क्या? क्या समुद्र में गिर जाए? वह भी सरकारी गुनाह है। भुगते बिना चारा ही नहीं है न! जैसे शकरकंद भठ्ठी में भुनता है, वैसे ही लोग चारों ओर से रात-दिन भुनते रहते हैं। वे इस भठ्ठी में से भागकर जाएँ कहाँ? 'ज्ञानीपुरुष' के पास बैठने से अग्नि शांत होती है और काम हो जाता है। संसार तो प्रत्यक्ष अग्नि है। किसी को जलन होती है तो किसी को आँच लगती है। इसमें कहीं सुख होता होगा? इसमें यदि सुख होता तो चक्रवर्ती राजा तेरह सौ रानियाँ छोड़कर भाग नहीं गए होते! उनका ही तो भारी त्रास था उन्हें! इसीलिए तो राजपाट वगैरह सब छोड़कर भाग गए। देवों को भी दुःख? देवों में बचपन नहीं होता, माँ की कोख से जन्म नहीं लेना होता। वे सब दुःख नहीं हैं, बचपन के दुःख भी नहीं हैं। उन्हें संडास नहीं जाना होता। उन्हें तो वैराग्य आए, वैसे साधन ही नहीं होते। उन्हें तो जन्म से ही जवानी और मरना भी जवानी में ही। तो फिर उन्हें कौन से दुःख होंगे? देवों में स्पर्धा के बहुत दुःख हैं। इनसे ये बड़े और उनसे बड़े वे! ऐसे स्पर्धा से राग-द्वेष होते हैं। उनका बहुत दुःख लगता रहता है उन्हें। इसीलिए तो उन्हें भी 'ज्ञानीपुरुष' कब मिलें, ऐसी इच्छा होती है! लेकिन उनकी मृत्यु बीच में ही नहीं हो जाती, आयुष्य बीच में नहीं टूटता। उनके वहाँ इन्द्रिय सुख भरपूर हैं, फिर भी वहाँ उन्हें जेल जैसा लगता है! वहाँ पर अजंपे-कढ़ापे के दुःख हैं। कलियुग के रेगिस्तान में उद्यान जैसा सुख सुख तो मोक्ष में ही है और मोक्ष के लिए राग-द्वेष नहीं, लेकिन अज्ञान निकालने की ज़रूरत है। जिस फल में सुख का रस ही नहीं है, रस है, लेकिन वह शाता-अशाता (सुख-परिणाम, दु:ख-परिणाम) का ही है और उसमें भी अशाता का ही अपार रस है, उसमें तो सुख कैसा?
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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