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योगेश्वर श्री कृष्ण प्रश्नकर्ता : स्वधर्म यानी क्या है? अपने वैष्णवों में कहते हैं न कि स्वधर्म में रहो और परधर्म में मत जाना!
दादाश्री : अपने लोग स्वधर्म शब्द को समझे ही नहीं! वैष्णव धर्म वह स्वधर्म है और शैव या जैन या अन्य कोई धर्म, वे परधर्म हैं, ऐसा समझ बैठे हैं। कृष्ण भगवान ने कहा है कि, 'परधर्म भयावह,' इससे लोग ऐसा समझे कि वैष्णव धर्म के अलावा अन्य किसी भी धर्म का पालन करेंगे तो भय है। इस तरह हर एक धर्मवाले ऐसा ही कहते हैं कि परधर्म यानी कि दूसरे धर्म में भय है, लेकिन कोई स्वधर्म या परधर्म को समझा ही नहीं। परधर्म मतलब देह का धर्म और स्वधर्म मतलब आत्मा का स्वयं का धर्म । इस देह को नहलाते हो, धुलाते हो, एकादशी करवाते हो, वे सभी देहधर्म हैं, परधर्म हैं, इसमें आत्मा का एक भी धर्म नहीं है, स्वधर्म नहीं है। यह आत्मा ही अपना स्वरूप है। कृष्ण भगवान ने कहा है कि, 'स्वरूप के धर्म का पालन करना, वह स्वधर्म है। और ये एकादशी करते हैं या अन्य कुछ करते हैं, वह तो पराया धर्म है, उसमें स्वरूप नहीं है।'
'खुद का आत्मा ही कृष्ण है' ऐसा समझ में आए, उसकी पहचान हो जाए, तभी स्वधर्म का पालन किया जा सकता है। जिसे अंदरवाले कृष्ण की पहचान हो गई, वही सच्चा वैष्णव कहलाता है। आज तो कोई भी सच्चा वैष्णव नहीं बन पाया है! 'वैष्णव जन तो तेने रे कहीए...' उस परिभाषा के अनुसार भी, एक भी वैष्णव नहीं हुआ है! ।
लोग ऐसा कहते हैं कि, 'हम कृष्ण भगवान के धर्म का पालन करते हैं, लेकिन कृष्ण भगवान मुझे रोज़ कहते हैं कि, 'इनमें से एक भी व्यक्ति