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________________ ३५२ आप्तवाणी-२ हो, फिर महाव्रत भी आरोपित ही होंगे न?! तब वह कहता है कि, 'ऐसा तो हमने सोचा ही नहीं था।' आपने यदि कुछ सोचा नहीं है तो उससे भगवान महावीर को छला नहीं जा सकता, न ही इस मोक्षमार्ग को छला जा सकता है ! भगवान क्या ऐसे हैं कि धोखा खा जाएँ? कुछ लोग कहते हैं कि, 'हम पंचमहाव्रतधारी हैं, लेकिन ऐसा तो लोग मान लेंगे, क्योंकि लोगों को लक्ष्मी की पड़ी है, विषयों की पड़ी है, अन्य किसी चीज़ की पड़ी ही नहीं है। इस तरफ महाव्रत है या अणुव्रत है या आरोपित भाव है, ऐसी किसी चीज़ का कुछ भान ही नहीं है ! अपने जैसों को पता होता है, तब भी वे बोलते नहीं हैं, क्योंकि लोकविरुद्ध बोलना भी गुनाह है। लोकविरुद्ध मतलब क्या? कि यहाँ पर जैसा व्यवहार चलता है, उससे विरुद्ध हो, वैसा। चोरों का गाँव हो, वहाँ पर हम कहें कि, 'पंच रखो,' तो फिर गुनाह ही है न? चोरों के गाँव में आपकी जेब कट गई, अब आप कहो कि, 'मेरी जेब काट गया।' तब लोग कहेंगे कि, 'हमें क्या पता? आप पंच बिठाओ।' लेकिन पंच भी चोर के चोर ही है न? यानी कि लोकविरुद्ध नहीं बोलना चाहिए, लेकिन अगर कोई हमसे पूछे तो जवाब देना चाहिए कि, 'ये आरोपित पंचमहाव्रतधारी हैं। जैसे ये 'महावीर' अभी मोक्ष दे सकते हैं, वैसे ही क्या ये पंचमहाव्रतधारी फल दे सकते हैं (!)' कुछ नहीं मिल रहा हो, तो सड़े हुए गेहूँ मिलें तो सड़े हुए ला न! रोटी तो खानी पडेगी न! नहीं तो मर जाएँगे। इसलिए ये सब सड़े हुए गेहूँ खाते हैं, खाना ही पड़ता है न, कोई रास्ता ही नहीं है न! ये पंचमहाव्रतधारी आरोपित भाववाले हैं, ऐसा जानते ही नहीं थे न? 'ज्ञानीपुरुष' जब ऐसा विवेचन करें, तब पता चलता है। भगवान ने मना किया था कि, 'आरोपित प्रकार से पंचमहाव्रतधारी मत रहना। सिर्फ तीर्थंकरों की मूर्ति ही आरोपित भाव से रखना और शास्त्र आरोपित भाव से रखना। आरोपित भाव से पंचमहाव्रतधारी शब्द को बिगाड़ना मत। इसके बजाय तो आप 'परिग्रह के त्यागी हैं,' ऐसा कहना और अन्य जो सभी प्रकार के त्याग के अभ्यासी हैं, उसे व्रत नहीं कह सकते! परिग्रह का महाव्रत तो अति-अति उच्च कहलाता है ! 'दादा' अपरिग्रही हैं। वे संपूर्ण
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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