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आप्तवाणी-२
बाद राजा ने पान देते-देते पूछा, 'महाराज, भोजन कैसा लगा? कौन सा व्यंजन आपको सबसे अधिक पसंद आया?' तब मुनि तो थे साफ-साफ बोलनेवाले। तपस्वियों में कपट-वपट का झंझट नहीं होता, होता है तो मात्र एक अहंकार का ही झंझट। उन्होंने तो जैसा था वैसा कह दिया कि, 'हे राजा, सच कहूँ आप से? यह जो सिर पर घंट लटका हुआ था इसलिए मेरा चित्त तो वहीं पर भय से चिपका हुआ था और इसलिए मैंने क्या खाया वह भी मुझे मालूम नहीं।' तब जनक विदेही बोले, 'महाराज, भोजन करते समय आपका चित्त एब्सेन्ट था, उसी तरह हमारा चित्त संसार में निरंतर एब्सेन्ट ही रहता है! इस वैभव में हमारा चित्त रहता ही नहीं है। हम निरंतर अपने स्वरूप में ही रहते हैं!' ऐसे थे जनक विदेही!
जगत् विस्मृत किस प्रकार से होगा? उसी के लिए तो हम सब यहाँ सत्संग में इकट्ठे हुए हैं। यहाँ आपको जगत् आसानी से विस्मृत रहता है। एक क्षण भी जगत् विस्मृत हो सके, ऐसा है नहीं। ये बड़े-बड़े सेठ एक घंटा भी जगत् विस्मृत करने के लिए हज़ारों खर्च करने के लिए तैयार हैं। फिर भी जगत् विस्मृत हो सके ऐसा है नहीं। यह तो ऐसा है कि जिसे भूलने जाता है, वही आ धमकता है! अरे! सेठ अगर सामायिक करने बैठे हों और निश्चित करें कि 'फलाने को तो सामायिक के समय याद करना ही नहीं है, तो सबसे पहले वही याद आता है! और यहाँ अपने यहाँ तो आसानी से जगत् विस्मृत रहता है। आप जब यहाँ पर बैठे होते हो, तो आपका चित्त घर पर या दुकान पर कितनी बार जाता है?
प्रश्नकर्ता : एक बार भी नहीं, दादा!
दादाश्री : यदि चित्त पास में ही रहे तो बहुत शक्ति बढ़ती है। हमें ध्यान नहीं रखना चाहिए कि चित्त कौन-कौन सी जगह पर कब-कब जाकर आ गया?
जिसका चित्त किसी भी जगह पर नहीं जाता, उसे नमस्कार। इन 'दादा' का चित्त एक क्षण भी आगे-पीछे नहीं होता, यही है मुक्ति! चित्त का बंधन छूटना और मुक्ति होनी, दोनों साथ में ही होते हैं।