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चित्त चित्त अर्थात् ज्ञान-दर्शन, इन दो गुणों का अधिकारी, वह चित्त है। ये दोनों ही गुण अशुद्ध हों तो वह अशुद्ध चित्त कहलाता है और शुद्ध हो तो शुद्ध चित्त कहलाता है।
शुद्ध ज्ञान + शुद्ध दर्शन = शुद्ध चित्त = शुद्धात्मा। अशुद्ध ज्ञान + अशुद्ध दर्शन = अशुद्ध चित्त = अशुद्धात्मा।
हम यहाँ बैठे हुए हों, और वह परदेश में देख आता है, घर-वर सभी देख आता है। वह देख आने का, जान लेने का स्वभाव चित्त का है। जबकि मन का स्वभाव दिखाने का, पेम्फलेट दिखाने का है। मन एक के बाद एक पेम्फलेट दिखाता है। लोग तो किसी का दोष किसी और पर मढ़ देते हैं, कहते हैं कि, 'मेरा मन भटक रहा है!' मन कभी भी इस शरीर को छोड़कर बाहर नहीं जा सकता। जो जाता है वह चित्त है। लोग तो मन को पहचानते ही नहीं, चित्त को पहचानते ही नहीं। बुद्धि को नहीं पहचानते और अहंकार को भी नहीं पहचानते। अरे! अंत:करण-अंत:करण, ऐसे गाते हैं लेकिन अंत:करण को समझते नहीं है। पहले भीतर इस अंत:करण में प्याला फूटता है बाद में ही बाहर प्याला फूटता है।
इस तरह से मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार की बात किसी भी शास्त्र में नहीं समझाई गई है।
यह चित्त तो अंदर भी भटकता है और बाहर भी भटकता है। दिमाग़ में क्या होता है, वह चित्त देख आता है।
चित्त गैरहाज़िर - उसके फल? एक मिलमालिक सांताक्रुज़ में मेरे यहाँ आए थे। उनसे मैंने पूछा,