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आप्तवाणी-२
से बाँधा जा सके, ऐसा नहीं है। जैसे पानी को बाँधने के लिए बर्तन चाहिए, वैसे ही मन को बाँधने के लिए ज्ञान चाहिए। मन तो ज्ञानी के वश में ही रहता है! मन को फ्रेक्चर नहीं करना है, लेकिन मन का विलय करना है। मन तो संसार समुद्र की नाव है, संसार समुद्र के किनारे जाने के लिए नाव से जाया जा सकता है। यह पूरा जगत् संसारसागर में डुबकियाँ लगा रहा है। तैरता है और वापस डुबकियाँ लगाता है और उससे ऊब जाता है। इसलिए हर एक को नाव से किनारे जाने की इच्छा तो रहती ही है, लेकिन भान नहीं है, इसलिए मनरूपी नाव का नाश करने जाता है। मन की तो ज़रूरत है। मन-वह तो ज्ञेय है और 'हम' खुद ज्ञाता-दृष्टा हैं। इस मनरूपी फिल्म के बिना हम करेंगे क्या? मन, वह तो फिल्म है लेकिन स्वरूप का भान नहीं है इसलिए उसमें एकाकार हो जाता है कि, 'मुझे अच्छे विचार आते हैं' और जब खराब विचार आते हैं तब अच्छा नहीं लगता! अच्छे विचार आते हैं तो राग का बीज पड़ता है और खराब विचार आते हैं तब द्वेष का बीज पड़ता है। इस प्रकार संसार खड़ा रहता है! 'ज्ञानीपुरुष', 'खुद कौन है?', जब इस रियल स्वरूप का भान करवाते हैं, तब दिव्यचक्षु प्राप्त होते हैं, फिर मन की गाँठें पहचानी जाती हैं और इसके बाद मन की गाँठे देखते रहने से वे विलय होती जाती हैं।
प्रश्नकर्ता : संसार में बहुत नीरसता लगती है। कहीं भी अच्छा नहीं लगता, तो क्या करें?
दादाश्री : किसी इंसान को पाँच-सात दिन बुख़ार आए न, तो कहेगा, 'मुझे कुछ भाता नहीं है' कोई उससे ऐसा करार करवा ले और वह लिखकर दे दे कि, 'मुझे कुछ भी नहीं भाता।' तो क्या वह करार हमेशा के लिए रखेगा? ना। वह तो कहेगा, 'यह करार फाड़ दो। उस समय तो मुझे बुखार आया था इसलिए ऐसा साइन कर दिया था, लेकिन अब तो बुख़ार नहीं है!' इस मन की गति समय-समय पर पलटती रहती है। यह रुचि तो वापस आ भी सकती है। यह तो, जब ऐसी कन्डीशन आती है तब कहता है, 'मुझे संसार अब अच्छा नहीं लगता।' तब ऐसा साइन कर देता है, लेकिन यह कन्डीशन तो वापस बदल जाएगी।