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आप्तवाणी - २
धोकर पड़े हैं।' महाराज को ऐसा रहता है कि इन्हें कुछ संयम प्राप्त करवाऊँ । संयम का अर्थ ही नहीं समझे ।
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त्याग तो किसे कहते हैं कि जो बरते, वह । जो याद ही नहीं आए, उसे त्याग कहते हैं। भगवान ने त्याग किसे कहा है? कि मन में जो-जो विचार उत्पन्न हों, वाणी के जो-जो परमाणु उड़ें, उनमें खुद तन्मयाकार नहीं हो, उसे शुद्ध त्याग कहा है। मन में जो-जो विचार आएँ, फिर भले ही कितने भी अच्छे हों, पसंद हों या नापसंद हों, लेकिन उनसे जुदा रहे और तन्मयाकार नहीं हो, उसे भगवान ने त्याग कहा है । फिर, वाणी के जो-जो परमाणु उड़ते हैं, उनमें से किसी में भी खुद तन्मयाकार नहीं हो, उसे भगवान ने सर्वस्व त्याग कहा है, वही मोक्ष देगा, ऐसा है । भ्रांत भाषा में बाह्यत्याग के लिए भी त्याग का अर्थ अलग ही है, लेकिन रियल भाषा में उसे त्याग नहीं कहा है । 'यहाँ’ का एक आना भी ‘वहाँ' काम नहीं आएगा । तन्मयाकार नहीं होना, ऐसा कब हो सकता है? कि जब खुद शुद्ध बन जाएगा तब । खुद जो अशुद्ध है, उसमें से 'ज्ञानीपुरुष' शुद्ध पद दे दें, तब भगवान की भाषा का त्याग बरतेगा। 'ज्ञानीपुरुष' शुद्ध पद में बैठा देते हैं, उसके बाद मोक्ष हो जाता है। यह तो कितना सरल है! नहीं तो अनंत जन्मों तक भी ठिकाना नहीं पड़े ऐसा है !
बाह्य त्याग का अर्थ भी यदि समझ जाएँ तो भी वह कितना सार्थक हो जाए! एक तरफ पत्नी-बच्चों का तिरस्कार करता है और दूसरी तरफ मोक्ष ढूँढता है, उसमें आपत्ति है । यह तो कहेगा कि, 'मेरे उदयकर्म हैं।' अरे, तिरस्कार किया, उसे उदयकर्म नहीं कह सकते। आस-पड़ोसवालों, घर पर बीवी-बच्चे, माँ- - बाप सभी को राजीखुशी रखकर जाए, उसे खरा उदयकर्म कहते हैं। तिरस्कार करके छोड़ना भी उदयकर्म है, लेकिन वह राजीखुशी से नहीं है, इसलिए खरा उदयकर्म नहीं कहलाता। भगवान महावीर को भी जब उनके भाईयों ने अनुमति दी, तभी उन्होंने दीक्षा ली । घर के किसी भी सदस्य को - पत्नी को, छोटी बच्ची को, किसी भी जीव को तिरस्कृत करके मोक्ष में नहीं जा सकते । जहाँ थोड़ा सा भी तिरस्कार हो, वह मोक्ष का मार्ग नहीं है I