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मात्र को भी नहीं होती। संपूर्ण बुद्धि खत्म हो जाए, तब सामने सर्वज्ञ पद फूलमाला सहित हाज़िर हो जाता है!
जो बिना टिकट भटकता है, वह चित्त है। यहाँ बैठे-बैठे कहीं का भी हूबहू फोटो दिखलाए, वह चित्त है। शुद्ध ज्ञान + शुद्ध दर्शन = शुद्ध चित्त, यानी खुद शुद्धात्मा। अशुद्ध ज्ञान + अशुद्ध दर्शन = अशुद्ध चित्त। जगत् 'अनंत चित्त' में पड़ा हुआ है। साधु अनेक चित्त में आ गए हैं और 'ज्ञानीपुरुष' और सत्पुरुष 'एकचित्त' में होते हैं!
"अशुद्ध चित्त किसलिए अशुद्ध है? 'स्व' को नहीं देख सकता, मात्र 'पर' को ही देख सकता है। जबकि शुद्ध चित्त 'स्व' और 'पर' दोनों को देख सकता है।"
- दादाश्री जो चित्त की हाज़िरी में भोजन नहीं कर सकते, उन्हें हार्टफेल, ब्लड प्रेशर आदि रोग हो जाते हैं। चित्त की हाज़िरी में भोजन कर सकें तो कोई रोग ही नहीं हो, ऐसा है!
अनाहत नाद, कुंडलिनी, वे सब चित्त चमत्कार हैं और पौद्गलिक
कुछ कहते हैं कि, 'मुझे भीतर कृष्ण भगवान दिखते हैं।' वह आत्मा नहीं है, वह तो चित्त चमत्कार है। उस कृष्ण को देखनेवाला आत्मा है। अंत में दृष्टि दृष्टा में डालनी है। यह तो दृष्टि दृश्य में डालते हैं।' – दादाश्री
जो कृष्ण दिखते हैं, वह तो दृश्य है और उसे देखनेवाला 'खुद' दृष्टा है, आत्मा है, स्वयं 'कृष्ण' हैं !
'मैं चंदूलाल हूँ' यही मूल 'अहंकार' है। यह जाए तो निरहंकारी पद प्राप्त होता है। जो बाकी रहे, वह निकाली अहंकार यानी ड्रामेटिक अहंकार है। ये अहंकार दो प्रकार के हैं, एक सुंदर और दूसरा कुरूप। इस अहंकार ने ही सब बिगाड़ा है, वह हमारे खुद के स्व-सुख को चखने नहीं देता। अहंकार को विलय करने का एक ही साधन जगत् में है और वह है 'ज्ञानीपुरुष' के चरण का अंगूठा!