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आप्तवाणी-२
क्या कहते हैं कि, 'हमें व्यवस्थित ने भेजा है। तू हमें गालियाँ दे रहा है लेकिन फिर तुझे व्यवस्थित पकड़ेगा' और जब मीठा संयोग आता है, तब लोग 'आओ भाई! आओ भाई!' ऐसा करते हैं। यह कैसा है कि यदि तू संयोगों के साथ रहेगा तो संयोग तो विनाशी हैं, तो तू भी विनाशी बन जाएगा लेकिन अगर संयोगों से अलग 'स्व' में रहेगा तो तू अविनाशी ही रहेगा।
यह तो कैसा है कि, कड़वे संयोगों को मना करने पर भी वे आते हैं और मीठे संयोगों को 'आओ, आओ' कहें फिर भी वे चले जाते हैं! ऐसा कर-करके तो अनंत जन्म बिगाड़े हैं, कुध्यान किए हैं। मोक्ष चाहिए तो शुक्लध्यान में रहना और संसार चाहिए तो धर्मध्यान रखना कि किस तरह सबका भला करूँ। धर्मध्यान तो, कभी कोई व्यक्ति उल्टा बोले, तो खुद ऐसा मानता है कि मेरा कोई हिसाब बाकी होगा, इसलिए ऐसा कड़वा संयोग मिला लेकिन उसके बाद फिर उस कड़वे संयोग को मीठा करता है, संयोग सीधा करता है। कोई व्यक्ति लड़ता हुआ आए कि, 'आपने मुझे पच्चीस रुपये कम दिए,' तो उसे पच्चीस में पाँच और मिलाकर, देकर राजी करके किसी भी तरह उस संयोग को सुधारकर भेजना है। संयोग को रोशन करके भेजें तो अगले जन्म में सीधे संयोग मिलेंगे। जहाँ-जहाँ उलझनें पड़ी हैं वहाँ-वहाँ पर वह संयोग उलझनवाला आता है, वही बाधक होता है। इसलिए उल्टे संयोग को उल्टा मत देखना, लेकिन उन्हें सीधा और मीठा करके भेजना ताकि जिससे अगले जन्म में बगैर उलझन के संयोग मिलें।
इन लोगों ने कहा है कि, 'आप शांताबहन, इनकी समधन, इनकी माँ।' और वह सब आपने मान लिया और फिर वैसी ही बन गईं! ऐसा है कि इंसान जब गहरी सोच में पड़ा हो, तब खुद का नाम भी भूल जाता है। उसी तरह इन संयोगों से घिर गया और खुद को भूल गया, इसका नाम संसार! इसमें अज्ञानता का ही एग्रीमेन्ट और अज्ञानता की ही पुष्टि की!
वह कहता है कि, 'इसका जमाई और इसका ससुर।' अरे! तू जमाई कैसा? तो कहता है कि, 'मैंने शादी की है न?' यह तो मार खाकर भोगते हैं, वह शादी है। ऐसा है, यह शादी, वह तो एक जन्म का एग्रीमेन्ट है, लेकिन इसे तो हमेशा का मानकर बैठ गया है! और ऊपर से इनाम में