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में नहीं रहना, और उसके लिए जो तप करना पड़ता है, वह आंतर तप है। यह बाह्य तप जो किया जाता है, उसमें जो कर्तापन आ जाता है, वह अहंकार है। भगवान ने प्राप्त तप को समताभाव से सहन कर लेने का कहा है, न कि खेंच-तानकर अहंकार करके, तप में तपने को कहा है! अभी जो भी स्थूल तप किए जाते हैं, वे सभी प्रकृति करवाती है, उसमें क्या पुरुषार्थ? पुरुषार्थ तो आंतरतप में 'पुरुष' होने के बाद ही शुरू होता है। प्रकृति ज़बरदस्ती तप करवाती है और इंसान अहंकार करता है कि 'मैंने तप किया!' जो कुछ भी तप होता है, वह प्रकृति के अधीन होता है। इसमें 'खुद' कुछ भी करता नहीं है, ऐसा सतत ख्याल रहे तो तप के रिएक्शन के रूप में अहंकार खड़ा नहीं होता, नहीं तो तप का रिएक्शन क्रोध, मान और अहंकार है। - त्याग किसे कहा जाता है? सहज वर्तन में बरते, वह त्याग कहलाता है। अन्य सभी त्याग अहंकार करके किया हुआ कहलाता है। 'त्यागे सो आगे!' जिस-जिस चीज़ का त्याग अहंकार करके किया हो, वह आगे जाकर सौ गुना होकर वापस मिलता है। 'मोक्षमार्ग में त्याग की भी शर्त नहीं है और अत्याग की भी शर्त नहीं है!' शास्त्र स्वयं कहते हैं कि ज्ञानी को त्यागात्याग संभव नहीं होता। जो प्रकृति में रमणता करते हैं, वे जो कोई भी त्याग करते हैं, वह प्रकृति ही करवाती है और वह सिर्फ अहंकार करता है कि 'मैंने त्याग किया!' और जो निरंतर आत्मरमणता में हैं, उन्हें त्यागात्याग संभव ही नहीं होता। आत्मा का स्वभाव त्याग या ग्रहण करने का है ही नहीं। यदि वैसा होता, तब तो सिद्धक्षेत्र में विराजमान सिद्ध भगवंत भी त्याग या ग्रहण करते हुए बैठे होते! तो फिर वह मोक्ष कहलाता ही कैसे? यह तो, पुद्गल त्याग करता है और पुद्गल ही ग्रहण करता है और खुद मात्र अहंकार ही करता है। भगवान ने वस्तु का त्याग करने को नहीं कहा है, लेकिन वस्तु की मूर्छा का, मोह का त्याग बरतना चाहिए, ऐसा कहा है।
'तादात्म्य अध्यास ही राग है और जहाँ तादात्म्य अध्यास नहीं है, वह त्याग।'
- दादाश्री
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