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संग असर
२२१ ये देखो, लोग भी कहीं सर्दी-गर्मी देखते हैं? फिर भी किया हुआ सभी व्यर्थ जाता है, सारी शक्ति उल्टे रास्ते व्यर्थ खर्च हो रही है। न तो मोक्ष का काम होता है और न ही संसार का काम होता है। घर में भी कोई यश नहीं देता, और ऊपर से कहेंगे कि, 'यह तो ऐसी है, यह तो वैसी है!' निरे अपयश की ही पोटलियाँ मिलती रहती हैं!
सत्संग में, 'दादा' के परम सत्संग में जाने को मन होता रहता है, इसे अंतराय टूटने की शुरूआत होना कहा जाएगा और वहाँ जाने में हरकतरुकावट नहीं आए, उसे अंतराय टूट चुके हैं, ऐसा कहा जाएगा।
यहाँ सत्संग में बैठकर जो कुछ परिवर्तन हुआ लगता है वह विस्तार से समझ लेना चाहिए, और वही पुरुषार्थ है। ज्ञान पोइन्ट टु पोइन्ट धीरेधीरे समझ लेना चाहिए। सत्संग करते हुए सबसे आसान रास्ता यह है कि दादा को राजी रखना, वह।
यदि 'हमारा' संग नहीं मिले तो हमारे वाक्यों का संग, वह सारा सत्संग ही है। सत्संग यानी शुद्धात्मा के रिलेटिव का संग, अन्य किसी का संग रखने जैसा नहीं है, फिर भले ही वह साधु हो, सन्यासी हो या कोई भी हो। हमें तो भीतर माल देख लेना है, फिर बाकी कुछ भी आँखों को छूने दें, ऐसा नहीं है। गाय-भैंस में भी शुद्धात्मा है, इसका विश्वास हो जाने के बाद दिखने ही चाहिए न? फिर यदि नहीं दिखें तो वह प्रमाद कहलाएगा।
जिनके यहाँ इन 'दादा' की आरती उतरती है, उनके वहाँ वातावरण तो बहुत ही उच्च कोटि का बरतता है। आरती तो विरति (राग या आसक्ति का अभाव, उदासीनता) है! जिनके घर में आरती होती है उनके घर पर तो वातावरण पूरा ही बदल जाता है। खुद तो 'शुद्ध' होता जाता है और घर के सभी बाल-बच्चों को भी ऊँचे संस्कार मिलते हैं। यह आरती ठीक से बोली जाए तो घर पर 'दादा' हाज़िर हो जाते हैं और 'दादा' हाज़िर हो जाएँ, तब सभी देवी-देवता हाज़िर हो जाते हैं और सभी देवी-देवताओं की कृपा रहती है। आरती तो घर पर नियमित करनी चाहिए और उसके