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आप्तवाणी-२
पद पर हैं, तो द्वेष हो जाता है। इसलिए हम कहते हैं न कि स्पर्धारहित
बनना है।
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दो हीरों के व्यापारी हों और स्पर्धक बनें तो द्वेष हो जाता है, फिर राग भी उसी पर होता है, तब वापस चाय भी पीते हैं साथ में बैठकर । जहाँ ज्ञान वहाँ वीतराग
,
भगवान राग किसे कहते हैं? 'मैं चंदूलाल हूँ, ' 'मैंने भोजन किया' उसे राग कहते हैं और 'मैं निराहारी मात्र उसे जानता हूँ,' वह राग नहीं है । 'मैं और मेरा' वही राग है ।
अज्ञान के प्रति जो राग है, वही 'राग' और ज्ञान के प्रति राग हो तो वह ‘वीतराग'।
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इन सभी ने राग का उल्टा अर्थ लिया है । विषयों पर राग हो, उसे वे राग कहते हैं, लेकिन वह तो आकर्षण गुण है, आसक्ति है। पूरा जगत् 'राग' में फँसा है । आसक्ति मतलब आकर्षण ।
अज्ञान के प्रति प्रेम, वह राग और ज्ञान के प्रति प्रेम, वह वीतराग ।