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व्यवहारिक सुख-दुःख की समझ
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कल्याण होता? अब रामचंद्र जी हँसने लगे हैं। अब हमेशा के लिए हँसते छोड़कर जा रहे हैं। जो देखेगा वह भी हँसने लगेगा। हमने प्रतिष्ठा कर दी है। कभी सच्ची प्रतिष्ठा ही नहीं हुई थी।' ये जो प्रतिष्ठा करते हैं वे वासनावाले लोग हैं। प्रतिष्ठा तो आत्मज्ञानी, ऐसे 'ज्ञानीपुरुष' करें तभी वह फल देती है। वासना मतलब समझ में आया न? कुछ न कुछ इच्छा कि, 'चंदूभाई काम आएँगे' इसे वासना कहते हैं। जिसे इस जगत् में किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है, पूरे जगत् का सोना दें तो भी ज़रूरत नहीं है, विषयों की ज़रूरत नहीं है, कीर्ति की ज़रूरत नहीं है, जिसे किसी प्रकार की भीख नहीं है, वे निर्वासनिक कहलाते हैं, ऐसे 'ज्ञानीपुरुष' चाहे सो करें, मूर्ति को बोलती हुई बना देते हैं। आप मूर्ति के साथ बातचीत नहीं करते? लेकिन आपको बोलने की छूट है न? वे नहीं बोलें तो आप बोलना, उसमें क्या हो गया? 'भगवान आप क्यों नहीं बोलते? क्या मुझ पर विश्वास नहीं आता?' उनसे ऐसा कहना। इन लोगों से ऐसा कहें तो वे हँस नहीं पड़ते? उसी तरह मूर्ति भी हँस पड़ती है, एक मूर्ति है या दो?
प्रश्नकर्ता : एक। दादाश्री : नहलाते-धुलाते हो क्या? प्रश्नकर्ता : हाँ, रोज़ नहलाता हूँ। दादाश्री : गरम पानी से या ठंडे से? प्रश्नकर्ता : गुनगुने पानी से।
दादाश्री : वह ठीक है। नहीं तो बहुत ठंडे पानी से नहलाने पर ठंड लगती है और बहुत गरम पानी से नहलाने पर जल जाते हैं। इसलिए हलका गरम पानी चाहिए। ठाकुर जी को रोज़ खाना खिलाते हो या रोज़ अगियारस (एकादशी) करवाते हो?
प्रश्नकर्ता : अगियारस तो मैं भी नहीं करता।
दादाश्री : आप नहीं करते उसमें हर्ज नहीं है, लेकिन ठाकुर जी को भोजन करवाते हो न?