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आप्तवाणी-२
ऐसे लोगों का भी चलता है न? पूरी दुनिया ही चल रही है तो फिर छोड़ न यह सब!
हम स्वरूप ज्ञान देते हैं, उसके बाद दु:ख किसे कहेंगे? इस देह को स्पर्श करे-वह, इन कपड़ों को स्पर्श करे-वह नहीं। यह तो कपडों को स्पर्श करे तब भी कहेगा, 'मुझे दुःख हुआ!' शादी में जा रहे हों और ऊपर से किसीने थूक दिया तो कहेगा कि, 'इसने मुझ पर थूका।' तो हम कहते हैं कि, 'हाँ, उसने तुझ पर थूका वह ठीक है। लेकिन वह कुछ तेरा दुःख नहीं है।' दुःख तो किसे कहते हैं कि जो देह को स्पर्श करे वह।
पत्नी को स्पर्श करनेवाला दुःख तो पत्नी को स्पर्श किया कहा जाएगा। उसे हम 'मन पर' किसलिए लें? उसे तो ज्ञान में लेना चाहिए।
हम हर एक बात का पृथक्करण कर देते हैं। व्यापार में नुकसान हो तो कहते हैं कि व्यापार को नुकसान हुआ। क्योंकि हम लोग फ़ायदेनुकसान के मालिक नहीं है, तब फिर नुकसान हम किसलिए सिर पर लें? हमें फायदा-नुकसान स्पर्श नहीं करते। और यदि नुकसान हुआ और इन्कम टैक्सवाला आए तो व्यापार से कह देते हैं कि, 'हे व्यापार, तेरे पास चुकाया जा सके उतना हो तो इन्हें चुका दे, तुझे चुकाना है।'
तू कहे कि, 'कान दुःख रहा है, तो मैं तेरी सूसूंगा, 'दाढ़ दुःख रही है।' तो भी मैं सूनूँगा। भूख लगी है, वह भी मैं सूसूंगा। उसे दुःख कहते हैं। और तू कहे कि, 'खिचड़ी में घी नहीं है, तो वह नहीं सूनूँगा। इस देह में तो इतनी सी खिचड़ी डालें तो वह शोर नहीं मचाती। फिर तुझे जो ध्यान करना हो वह करना, नहीं तो दुर्ध्यान करना हो तो वह कर, तुझे पूरी छूट है!
ये तो बिना काम के दुःख सिर पर लेकर फिरते हैं। घर में कढ़ी ढुल जाए तो सेठ उसे सिर पर ले लेता है कि 'करम फूटे हैं जो कढ़ी ढुल गई,' उसे दुःख मानता है। उसी तरह व्यापार में भी सेठ दुःख सिर पर लेकर फिरता है। कितने ऑफिस के द:ख होते हैं और कितने समाज के भी दुःख होते हैं। लेकिन उन्हें दुःख नहीं कहा जा सकता। हम तो