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व्यवहारिक सुख-दुःख की समझ
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हिसाब से मिलता है। रोज़ कड़वा देनेवाला एक दिन ऐसा सुंदर दे देता है! ये सारे ऋणानुबंधी ग्राहक-व्यापारी के संबंध हैं!
हमारे पास भी कड़वे प्याले आए थे न। हमने पी लिए और खत्म भी हो गए! जो कुछ किसीने कड़वा दिया था, वह हमने बल्कि आशीर्वाद देकर पी लिया! इसीलिए तो हम महादेव जी बन गए हैं!
प्रश्नकर्ता : ये कर्म खपाना इसी को कहते हैं?
दादाश्री : यही है, कि कड़वी भेंट आएँ तब स्वीकार कर लेनी चाहिए। लेकिन ऐसी कड़वी भेंट-सौगातें आएँ तब कहता है कि, 'अरे! तू मेरे साथ ऐसा क्यों कर रहा है?' ऐसा करने से कर्म नहीं खपते। नया व्यापार शुरू होता है। जिसे स्वरूप का भान है यानी कि जिसे इस दुकान का निकाल करना है वह हल ला देता है। जिसे स्वरूप का भान नहीं है उसका तो व्यापार चल ही रहा है, दुकान चल रही है।
सामनेवाला कड़वा दे तब वह कौन से बहीखाते का है, वैसे नहीं जान लें तब तक वह अच्छा नहीं लगता। लेकिन यदि पता चले कि, 'अहो! यह तो इस खाते का है!' तब फिर वह अच्छा लगेगा। 'दादा' की तो रकम ही खत्म हो गई है, तब फिर कड़वा कौन दे? यह तो जब तक वह रकम सिलक में हो, तभी तक देने आते हैं।
यहाँ सत्संग निरंतर आनंद देनेवाला है ! और बाहर कहीं भी आनंद है ही नहीं। इसलिए कुछ चीज़ों में आनंद मानकर आनंद लेते हैं। 'समझे हए' में से नहीं लेकिन 'माने हए' में से आनंद लेते हैं। संसार के सुख तो रोंग बिलीफ़ से हैं। यह ज्ञान यदि होता न, तो भी कुछ चलता, लेकिन यह तो रोंग बिलीफ़ से आगे बढ़ता ही नहीं! विवरणपूर्वक उन सुखों को देखे न तो भी वे कल्पित सुख समझ में आ जाएँ, लेकिन यह तो जब तक रोंग बिलीफ़ नहीं जाती, तब तक उसी में सुख महसूस होता है।
सीधे संयोग मिलें तो सुख मिलता है और उल्टे संयोग मिलें तो दुःख को निमंत्रण देता है। कोई व्यक्ति हो और उसे अगर जुआ का और शराबी के साथ शराब पीने का कुसंग मिले, तो वह संयोग उसे दुःखी करता