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आप्तवाणी-२
सिलक में से एक दुःख कम हुआ । लेकिन यह तो अवस्था में एकाकार रहता है, ऐसा नहीं होना चाहिए। किसी के साथ हज़ार गालियों का हिसाब हो तो वह एक गाली दे तो हमें ऐसा कहना चाहिए कि हज़ार में से एक तो कम हुई ! अब नौ सौ निन्यानवे गालियाँ बाकी रहीं ! ऐसा बोझ रहता है कि, 'मुझे क्यों गालियाँ दी उसने,' ऐसा नहीं होना चाहिए। और यदि आपके दुःख दादा को सौंप दो, तब तो काम ही निकल जाए। 'हम' पूरे जगत् के दुःख लेने आए हैं, जिन्हें सौंपने हों वे इन 'दादा' को सौंप जाए । आप ‘दादा' से कहना कि, 'दादा हम तो पहले से ही पागल हैं, इसलिए अब आप हाज़िर रहना ।' तब दादा आएँगे ही।
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जिस तरह मान के समय आनंद रहता है, उसी तरह अपमान के समय भी आनंद हाज़िर रहना ही चाहिए । अपमान के समय आनंद हाज़िर क्यों नहीं रहता? ‘अपमान के समय आनंद हाज़िर रहेगा ही' ऐसा नहीं कहने से वह हाज़िर नहीं रहता, इसलिए अगर हम ' रहेगा ही' ऐसा कहेंगे तो रहेगा। लेकिन वह तो 'ध्यान नहीं रहता' ऐसा कहते हैं तो फिर वह ध्यान किस तरह हाज़िर रहे ? भीतर आत्मा में अनंत शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। जैसा नक्की करे, वैसा हो जाए, ऐसा है ।
इस संसार में सुख नहीं है, ऐसा हिसाब निकाला है क्या तूने? प्रश्नकर्ता : हाँ, दादा ।
दादाश्री : जिसे इस संसार के बहीखातों का सार (लेखा-जोखा) निकालना आ गया, उसे मोक्ष की तीव्र इच्छा होती है । बहीखाता देखना नहीं आता तब भी मोक्ष की तीव्र इच्छा तो होती ही है । सार निकालने पर ही यह समझ में आता है कि किसमें सुख है? बाप बनने में सुख है? पति बनने में सुख है?
सत्सुख कब मिलता है?
प्रश्नकर्ता : खुद शुद्ध है, ऐसा ये लोग जानते होंगे?
दादाश्री : किस तरह जानेंगे? खुद शुद्ध है ऐसा जान लें तो अपार