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जगत् व्यवहार स्वरूप
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ही नहीं डाली हो तो हम कुछ भी बोले बगैर पी लेते हैं। कई बार तो नीचे पता भी नहीं चलता। और पता चले तो, वे जब चाय पीते हैं तब पता चलता है। हम रोज़मर्रा की बातों में नहीं बोलते। बोलने का कहाँ होता है कि कुछ नवीन डालना हो तभी कहते हैं। और चीनी तो रोज़ डालते ही हैं। वे आज ही भूल गए हैं, तो उसमें बोलने की ज़रूरत नहीं है। चीनी डालनी तो व्यवहार है। इसलिए बिना चीनी की चाय आए तो हम समझ जाते हैं कि आज ऐसा व्यवहार आया है, तो चाय पी लेते हैं।
व्यवहार में 'न्याय' कौन सा? व्यवहार ही सब जगह उलझन खड़ी करता है न? व्यवहार का और न्याय का कुछ लेना-देना नहीं है। लोग न्याय करने जाते हैं, न्याय को बुलाना ही नहीं होता। यदि बहू को सास परेशान करती है, वह भी व्यवहार और यदि बहू को सास भोजन करवाती है, वह भी व्यवहार है। सारे दिन केसर उँडेले वह भी व्यवहार है और दुःख दे वह भी व्यवहार है। यदि व्यवहार नहीं होगा, तब तो पुद्गल आएगा ही नहीं न! यह व्यवहार है, उसमें न्यायव्याय देखने जाएँ तो निबेड़ा ही नहीं आए।
भगवान के साथ ग्यारह शिष्यों का व्यवहार था, उनमें किसी शिष्य को किसी दिन बुरा लग जाए तो वह शिष्य सारी रात सोता नहीं था। उसमें भगवान क्या करें? उसमें कहीं न्याय देखना होता है? यदि व्यवहार को व्यवहार समझे तो न्याय समझ गया! पड़ोसी उल्टा क्यों बोल गए? क्योंकि अपना व्यवहार वैसा था इसलिए। और अपने से वाणी उल्टी निकले तो वह सामनेवाले के व्यवहार के अधीन है। लेकिन हमें तो मोक्ष में जाना है, इसलिए उसका प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : लेकिन तीर निकल गया उसका क्या? दादाश्री : वह व्यवहाराधीन है। प्रश्नकर्ता : ऐसी परंपरा रही तो बैर बढ़ेगा न? दादाश्री : नहीं, इसीलिए तो हम प्रतिक्रमण करते हैं। प्रतिक्रमण