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धर्मध्यान
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अनर्थकारी। न तो खुद के लिए, न ही मान के लिए, बिल्कुल मीनिंगलेस! अर्थ के बिना, हेतु के बिना जो क्रिया की जाए, वह अपध्यान।
हार्ड रौद्रध्यान दूसरा, इस काल में हार्ड रौद्रध्यान बढ़ गए हैं। हार्ड रौद्रध्यान यानी खुद की अधिक बुद्धि से सामनेवाले की कम बुद्धि का फायदा उठाकर सामनेवाले का छीन लेना, वह हार्ड रौद्रध्यान। यह तो खुद की बुद्धि से सामनेवाले को मारता है, सामनेवाले का पूरा खून चूस लेता है और उसकी हड्डियाँ और चमड़ी ही बाकी रखता है। फिर ऊपर से कहता है, 'मैंने कहाँ मारा? हमारा तो अहिंसा परमो धर्म!' इन सेठों ने ऐसे-ऐसे कनेक्शन की व्यवस्था कर दी होती है कि सेठ गद्दी-तकिये पर बैठे रहते हैं और किसान बेचारे रात-दिन मेहनत करते हैं और मक्खन सेठ के घर जाता है और उसके हिस्से में तो छाछ भी नहीं आती! सेठ खुद की अधिक बुद्धि से दूसरे की कम बुद्धि का लाभ उठाकर उसे धीरे-धीरे मारता है। इसे हार्ड रौद्रध्यान कहा है। यह तो एक-एक चपत करके मारता है। एकदम तलवार से दो टुकड़े कर डाले तो वह हार्ड रौद्रध्यान नहीं कहलाता, रौद्रध्यान कहलाता है क्योंकि अगर दो टुकड़े करे तब तो फिर खून देखकर भी उसका मन पीछे हट जाता है कि, 'अरेरे! मुझसे यह मर गया।' लेकिन इस हार्ड रौद्रध्यान से तो मन पीछे नहीं हटता और बल्कि बढ़ता जाता है। खन की एक बँद भी गिराए बिना सेठ मज़दूर के शरीर के खून की एक-एक बूंद चूस लेता है! अब इसकी बराबरी कौन करे? इसका तो टर्मिनस स्टेशन (अंतिम स्टेशन) ही नहीं है न! इस हार्ड रौद्रध्यान का फल तो बहुत भयंकर आता है। सातवीं नर्क में भी नहीं समाए, ऐसा फल। इन हार्ड रौद्रध्यान और अपध्यान को बारीकी से समझना तो पड़ेगा न? आपको क्या लगता है? या फिर समझे बिना चलेगा?
प्रश्नकर्ता : समझना तो पड़ेगा ही दादा।
दादाश्री : यह भगवान महावीर के बाद के २५०० सालों का दुषमकाल है, तो सभी ने ही भूल खाई इसमें। साधु-वाधु सभी ने भूल