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'नो लॉ' - लॉ कुछ लोग हमें कहते हैं कि, 'दादा, आप आश्रम क्यों नहीं खोलते? आश्रम खोलिए न दादा?'
लेकिन 'ज्ञानीपुरुष' आश्रम का श्रम नहीं करते। वे तो, किसी का रूम मिला तो वहाँ सत्संग कर लेते हैं, और वह भी नहीं मिले तो किसी पेड़ के नीचे बैठकर सत्संग कर लेते हैं। और इन आश्रमों में तो नियम चाहिए, रसोईघर चाहिए, संडास चाहिए। ये सब चाहिए और वही का वही संसार चाहिए। फिर वापस कहाँ यह मुसीबत !
आश्रम में तो दाल-चावल, रोटी और सब्जी खाकर पड़े रहते हैं, जैसे घर पर पड़े रहते हैं, वैसे। कुछ लोग तो खाकर पड़े रहने के लिए ही आश्रम में रहते हैं! अपने यहाँ आश्रम नहीं होता। हम तो ब्रह्मांड के ऊपरी, इसलिए जहाँ जाए वहाँ सभी गाँव अपने ही न!
अपने यहाँ सत्संग में नो लॉ! अपने यहाँ तो बगैर लॉ का लॉ। अक्रम अर्थात् नो लॉ, पूरे जगत् में बगैर लॉ की पार्टी हो तो इन 'दादा' के फॉलोअर्स के पास है। उन्हें किसी जगह पर लॉ नहीं होता। जगत के लोग लॉ के बिना रह ही नहीं सकते। लॉ के बगैर रहेंगे तो मोक्ष में जाएँगे! लॉ नहीं रहे, तो सहज हो जाएँगे। लॉ से असहज हो जाते हैं। बिना लॉ का नियम अर्थात् सहज होता है।
जिसका एक्सेस हो जाए, यानी कि अधिकता हो जाए, उसके प्रति अभाव हो जाता है। जहाँ पर और कंट्रोल हो तो चित्त वहीं पर जाता है। चीनी पर कंट्रोल किया हो तो चित्त चीनी में ही रहता है कि कब ले आऊँ? कंट्रोल ऐसी चीज़ है कि वह मन को अधीर कर देती है। इसीलिए हम कहते हैं कि डीकंट्रोल कर दो। बाहर तो कंट्रोल ही करते रहते हैं, उससे मन पूरा दिन अधीर रहा करता है।