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सहज प्राकृत शक्ति देवियाँ
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ज्ञानी - सस्पृह, निस्पृह
हम संस्पृह - निस्पृह हैं। भगवान सस्पृह - निस्पृह थे। जबकि उनके चेले निस्पृह हो गए हैं! नेसेसिटी अराइज़ (ज़रूरत पैदा) हो उस अनुसार काम लेना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : सस्पृह - निस्पृह वह किस तरह? वह समझ में नहीं
आया ।
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दादाश्री : संसारी भावों में हम निस्पृही और आत्मा के भावो में सस्पृही। सस्पृही-निस्पृही होगा तभी मोक्ष में जा पाएगा। इसलिए हर एक अवसर का स्वागत कर लेना । समयानुसार काम लेना । फिर वह फायदे का हो या नुकसान का हो। भ्रांत बुद्धि 'सत्य' का अवलोकन नहीं होने देती। भगवान कहते हैं कि, 'तू भले थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी में रहे, उसमें हर्ज नहीं है, लेकिन ज़रा अविरोधाभास जीवन रखना । लक्ष्मी जी के नियम का पालन तो करना ही चाहिए। गलत रास्तेवाली लक्ष्मी नहीं लेनी चाहिए । लक्ष्मी के लिए सहज प्रयत्न होना चाहिए। दुकान पर जाकर रोज़ बैठना, लेकिन उसकी इच्छा नहीं होनी चाहिए। किसी के पैसे लिए तो लक्ष्मी जी क्या कहती हैं कि वापस दे देना। रोज़ ऐसा भाव करना चाहिए कि 'दे देने हैं, ' तो वे दिए ही जाएँगे ।
दूसरी बात यह कि लक्ष्मी जी का तिरस्कार नहीं करना चाहिए। कुछ कहते हैं कि, 'हमें नहीं चाहिए, लक्ष्मी जी को हम टच भी नहीं करते।' लक्ष्मी जी को नहीं छुए, उसमें हर्ज नहीं है, लेकिन ऐसे जो वाणी से बोलते हैं न, भाव में वैसा बरतता है, वह जोखिम है । आगे कितने ही जन्मों तक लक्ष्मी जी के बिना भटकता है । लक्ष्मी जी तो वीतराग हैं, अचेतन चीज़ है। खुद को उनका तिरस्कार नहीं करना चाहिए। किसी का भी तिरस्कार किया, फिर भले ही वह चेतन हो या अचेतन वह मिलेगा नहीं । हम तो 'अपरिग्रही हैं ' ऐसा बोलते हैं, लेकिन 'लक्ष्मी जी को कभी नहीं छूऊँगा' ऐसा नहीं बोलते। लक्ष्मी जी तो सारी दुनिया के व्यवहार की 'नाक' कहलाती हैं । 'व्यवस्थित' के नियम के