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प्रकृति
को, आहार संज्ञा को मैं लकड़ी से मारता रहा, छह महीने हो गए तब तो उसने माना। लेकिन अब उसका रिएक्शन यह आया है कि पिछले आठ सालों से एक पहर भी यदि भोजन नहीं मिले तो अंदर-बाहर शोर मच जाता है!
दादाश्री : देखो न, ये लोग कितने परेशान हो गए हैं! साधु, सन्यासी सभी कितने परेशान हो गए हैं? मन को दबाने जाते हैं, इसलिए! मन दबाने जैसी चीज़ नहीं है, वैसे ही छूट देने जैसी चीज़ भी नहीं है। लेकिन अगर छूट दें तो वह भी गुनाह है! दोनों ही गुनाह हैं!
प्रश्नकर्ता : क्या दोनों सही अनुपात में होने चाहिए?
दादाश्री : नहीं, अनुपात नहीं। जैसे कि यहाँ पर आपके बेटे की वाइफ आ जाए, तब उसके सामने मर्यादा रखनी होती है, आप लोगों में ऐसा होता है न?
प्रश्नकर्ता : हाँ, होता है दादा।
दादाश्री : तो फिर उस बेटे की वाइफ यों ही आपके सामने से जा रही हो और आप कहो कि, 'नहीं, यहाँ पर खड़ी रहो, या अपना नाम बताओ, आप कहाँ तक पढ़ी हो, क्या करती हो?' अगर आप ऐसा करते हो तो वह नुकसानदायक है। यह तो मन को छूट दे दी! यह तो मन का रक्षण करने जैसी बात है। मन पर से 'अपना' प्रभाव टूट नहीं जाना चाहिए, उसके लिए पटाना है। लेकिन ऐसा नहीं करना चाहिए और विरोध भी नहीं करना चाहिए। अगर घर की स्त्रियों के साथ आप ऐसा करो तो क्या होगा? उन पर आपका प्रभाव नहीं रहेगा।
'भाभो भारमां तो वहु लाजमां' गुजराती में ऐसी कहावत है, उसके जैसा है। इसलिए इस मन के साथ बहुत सलीके से काम लेना चाहिए। इस 'मन' ने तो सभी का पतन कर (गिरा) दिया है। इसीलिए तो सभी साधु, आचार्य माथाफोड़ी में पड़े हुए हैं न! गुरु बन गए थे, वहाँ से उनका पतन हो गया, वे शिष्य के शिष्य और उसके भी शिष्य के शिष्य के ये शिष्य बनकर बैठे हुए हैं ! क्योंकि मन पतन कर (गिरा) देता है। ग़ज़ब