________________
प्रकृति
७३
जेब काटकर तीस रुपये हाथ में आएँ तो पाँच रुपये 'कोढ़ी' को दान दे देता है और पच्चीस रुपये बहन को दे देता है। ऐसा है ! मन का स्वभाव, घडीभर में दान देता है और घडीभर में चोरी करता है। मन का स्वभाव विरोधाभासवाला है। प्रकृति नियमवाली है। प्रकृति को पहचान ले तो वश में हो सके, ऐसी है। इसलिए प्रकृति को पूरी तरह से पहचान लेना चाहिए।
प्रकति में यदि लोकनिंद्य कार्य नहीं हैं, तो उसमें आपत्ति नहीं है। यह चाय-पानी, नाश्ता करना, वह लोकनिंद्य नहीं है। जो प्रकृति लोकनिंद्य होती है, उसमें आपत्ति है। इस तरह की प्रकृति देखते रहने से हलकी पड़ती जाती है। जैसे-जैसे देखते जाएँ, वैसे-वैसे विलय होती जाती है। कोई व्यक्ति तलवार लेकर लड़ने आया हो, वह अगर आँखों से देखने से नरम पड़ जाता हो तो फिर से देखने पर वह वापस नहीं आएगा। यदि वह बलवान हो और अपना ज़ोर नरम पड़े, तो वह चढ़ बैठेगा। लेकिन यहाँ अपने पास तो 'दिव्यचक्षु' हैं। चर्मचक्षु से सामनेवाले का ज़ोर नरम पड़ जाता है, जबकि ये तो 'दिव्यचक्षु' हैं। इसलिए मात्र दृष्टि से ही प्रकृति पिघलने लगती है।
मोक्ष जाने के लिए कोई मनाही का हुक्म नहीं है, केवल 'खुद' को 'खुद' का भान हो जाना चाहिए। कोई त्यागी प्रकृति होती है, कोई तपवाली प्रकृति होती है, कोई विलासी प्रकृति होती है, जो हो वह, मोक्ष में जाने के लिए मात्र प्रकृति खपानी होती है!
भगवान तो आत्मा प्राप्त होने के बाद सिर्फ प्रकृति को ही देखा करते थे। प्रकृति का साइन्स देखते रहते थे कि यह साइन्स कैसा है?! भगवान अन्य कुछ भी नहीं देखते थे। भगवान तो सिर्फ खुद के पुद्गल (जो पूरण और गलन होता है) को ही देखते थे।
प्रकृति पूरण-गलन स्वभाव की है और खुद अपूरण-अगलन स्वभाव का है।
प्रकृति भी भगवान स्वरूप प्रकृति जब भगवान जैसी दिखने लगेगी तब मोक्ष में जा पाओगे।