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- इस जगत् की अधिकरण क्रिया क्या है? 'मैं चंदूलाल हूँ' इस आरोपित दर्शन से, ज्ञान से या चारित्र्य से जो भी कुछ किया जाता है उससे जगत् की अधिकरण क्रिया हो रही है। उस प्रतिष्ठा से नये प्रतिष्ठित आत्मा का निर्माण होता है, जो इस जगत् का अधिष्ठान है। सर्वप्रथम प्रतिष्ठित आत्मा का स्पष्ट विवरण देनेवाले दादाश्री ही हैं! - धर्म किसे कहते हैं? परिणामित हो वह धर्म। जिस धर्म से क्रोधमान-माया-लोभ कम होते-होते निर्मल हो जाएँ, वही धर्म कहलाता है। सारी जिंदगी देवदर्शन, प्रवचन, सामायिक, प्रतिक्रमण करने के बावजूद भी यदि एक भी दोष कम नहीं हो, तो उसे धर्म कैसे कहा जा सकता
है?
धर्म दो प्रकार के हैं : एक रिलेटिव धर्म और दूसरा रियल धर्म। रिलेटिव धर्म यानमुओ जेने कही कि मन के धर्म, वाणी के धर्म और देह के धर्म, और दूसरा है रियल धर्म यानी स्वधर्म, आत्मधर्म । जैन, वैष्णव, मुस्लिम, क्रिश्चियन वगैरह सभी रिलेटिव धर्म कहलाते हैं और रियल धर्म, आत्मधर्म तो सिर्फ 'ज्ञानीपुरुष' के हृदय में ही समाया हुआ होता है, वह और कहीं भी नहीं हो सकता।
श्रीमद् राजचंद्र कह गए हैं, 'और कुछ भी मत ढूँढ, मात्र एक सत्पुरुष को ढूँढकर उनके चरणों में सर्वभाव अर्पण करके बरतता जा। फिर यदि मोक्ष नहीं मिले तो मेरे पास से ले जाना।'
जिनका आत्मा संपूर्ण प्रकाशमान हुआ है, वहीं पर आत्मधर्म प्राप्त हो सकता है। और सभी धर्म है ज़रूर, लेकिन वे प्राकृत धर्म कहलाते हैं। जप, तप, त्याग, व्याख्यान, प्रवचन और सामायिक-प्रतिक्रमण वगैरह सभी प्राकृत धर्म हैं। जहाँ पर संपूर्ण आत्मधर्म है, वहाँ पर केवल ज्ञान क्रिया और केवल दर्शन क्रिया है, जिसका परिणाम केवल चारित्र है!
"धर्म पूरा-पूरा परिणामित हो तब ‘खुद' ही धर्म स्वरूप हो जाता है!"
- दादाश्री रियल धर्म वह साइन्टिफिक वस्तु है, गप्पबाज़ी नहीं है। यह तो
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