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आप्तवाणी-२
लेकिन यदि चंपा बन जाए, तो बाप कहेगा कि, 'नहीं चलेगा, सब गुलाब ही चाहिए।' अरे! यह प्रकृति का बगीचा तो देख! सभी गुलाब हो जाएँगे तो बगीचा कैसे कहलाएगा? वह तो गुलाब का खेत कहलाएगा! तुझे बगीचा बनाना है या खेत?
कलियुग में बाप कंजूस हो, माँ कंजूस हो और बेटा फ़िजूल खर्च करे ऐसा होता तो माँ-बाप बेटे को फ़िजूलखर्च कहते थे। अरे ! ज़रा धीरज तो रख। इस फ़िजूलखर्चवाली प्रकृति में फूल खिलेंगे। यह 'दादा' की दृष्टि मिल जाए तो प्रकृतिभेद नहीं पड़ेंगे और झगड़े नहीं होंगे। हर एक प्रकृति में फूल आएँगे, इसलिए इंतज़ार करो। यह तो लोग क्या करते हैं कि गुलाब में फूल आए हों और चंपा में नहीं आए हों, तो चंपा की डाली काट देते हैं। लेकिन धीरज रखे तो फूल सूंघने को मिलेंगे। हर एक की प्रकृति में फूल आएँगे। इस गुलाब के पौधे को देखे और फूल नहीं देखे तो कहेगा कि 'यह काँटेवाला पौधा है, इसलिए उखाड़ डालो।' अरे नहीं, ये काँटें हैं तो उसके सामने कोई अच्छा गुण होगा, ऐसा कुदरत में नियम है। इसलिए राह देखो। धीरज से देखो उस काँटे के पौधे में से गुलाब निकलेंगे।
एक बाप अपने बेटे को मार रहा था। अरे, नहीं मारते। अगर ऐसा हो कि डाँटने पर वह सुन ले तभी डाँटा जा सकता है। नहीं तो कलियुग में डाँटने जाएँ तो बच्चे उल्टे रास्ते चढ़ जाते हैं। उन्हें तो (प्रेम से) मोड़ने के प्रयत्न करने चाहिए।
अपने में बरकत होगी तो 'हाथिआ थोरमांय प्रगटे सुहास।' (कँटीली नागफनी में भी सुगंध प्रकट होगी।) प्रकृति एक ओर खराब हो तो दूसरी ओर उच्च प्रकार की होती है, ऐसा है।
यह तो ऐसा है न कि बैन्ड में यदि सिर्फ रामढोल ही हो तो उसे बैन्ड कैसे कहेंगे? उसमें तो एक रामढोल, एक पिपूड़ीवाला, एक बाजेवाला, ऐसे अलग-अलग बजानेवाले चाहिए। तभी वह बैन्ड शोभा देगा। कब कौन सी प्रकृति में कैसे फूल आएँगे, वह कहा नहीं जा सकता। इसीलिए धीरज धरना पड़ेगा।