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________________ (73) इसी तथ्य की पुष्टि गीता में भी की गई है। धर्म के पतन का कारण असुरों का उत्थान कहा गया है। धर्मोत्थान के लिए अवतार आवश्यक है। साधुओं के परित्राण, दुष्टों के विनाश और धर्म की स्थापना को युग-युग में आवश्यक मान्य किया है। विष्णुपुराण ने भी ऐसा ही उल्लेख प्राप्त होता है। इस प्रकार वैदिक महाकाव्य, महाभारत, गीता एवं विष्णु पुराण में प्राप्त उल्लेखों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि धर्म स्थापना के लिए जब-जब पृथ्वी पर अधर्म का आधिपत्य बढ़ता है, साधुवर्ग पीड़ित होता है, दुर्जन बलवान होते हैं, तब दुष्टों का संहार करके आसुरी शक्तियों का विनाश करने के लिए अवतार प्रतिपल जागृत रहते हैं एवं अन्य को एक क्षण मात्र भी इसमें प्रमाद न करने का उपदेश देते हैं। ___ जबकि जैन परम्परा में धर्म संस्थापना का हेतु इससे पूर्णतया विपरीत है। क्योंकि अहिंसा ही जिनके मूल में रही है, वहाँ प्राणि-वध को तो अवकाश ही नहीं है। अहिंसादि के पालन द्वारा जीव-रक्षा का उद्बोध आगम शास्त्रों में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। जीव-दया की प्रतिपालना हेतु संयम पथ पर आरूढ़ होकर स्वयं अर्हत् प्रभु उद्बोध देते हैं। वे स्वयं इस प्रतिपालना के लिए प्रतिपल जागृत रहते हैं एवं अन्य को एक क्षण मात्र भी इसमें प्रमाद न करने का उपदेश देते हैं। __ आचारङ्ग आदि सूत्रों में स्पष्टतया हिंसादि का त्याम एवं अहिंसादि महाव्रतों की परिपालन का उल्लेख हमने पूर्व में कर दिया है। स्वयं तो हिंसा न करें, किन्तु अन्यों से हिंसादि न करवाये। यहाँ तक कि जो हिंसादि करता है उसकी अनुमोदना/प्रशंसा भी न करें। इस प्रकार अत्यन्त सूक्ष्मता से महाव्रतों की परिपालना का उल्लेख किया गया है। जिसके माध्यम से आसुरी प्रवृत्तियों का ही नाश हो जाता है। सुख और शांति जन-जन में व्याप्त हो जाती है। फलतः लोक कल्याण की मंगल कामना का संचार होता है। स्वार्थ का स्थान जब परमार्थ ग्रहण कर लेता है। तब विश्व मैत्री को वीणा बजने लगती है। लोक में सुख और चैन की वंशी बजने से संघर्ष, पीड़ा, क्रान्ति का नामो निशान नहीं रहता। युद्ध और संग्राम का वातावरण अभय के नाद गुंजारव से समाप्त हो जाता है। इस प्रकार जहाँ ब्राह्मण ग्रंथों में धर्म की स्थापना के लिए अवतार का अवतरण दुष्टों का नाश एवं सज्जनों 1. यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहं // परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् / धर्म संस्थापनार्थाय सम्मवामि युगे युगे॥ गीता. 4.7-8 2. विष्णुपुराण 5.1.50
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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