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________________ (55) गुणस्थान के आरोहक्रम में हो नहीं सकता। अतः ‘णमो सिद्धाणं' के अन्तर्गत भी नहीं माना जा सकता। आचार्य तथा उपाध्याय पद भी केवली भगवान् के उपयुक्त नहीं है। शेष रहा पंचम पद 'णमो लोए सव्व साहूणं'। इस पद में नमस्कार किया जा सकेगा। क्योंकि अर्हन्त, आचार्य, उपाध्याय भी साधु पद से विहीन नहीं है। अतः सहज ही साधु पद में तो गणना की जा सकती ही है। इस प्रकार आगमिक उद्धरणों को देखते हुए ज्ञात होता है कि 'अर्हत्' के अधिकारी मात्र तीर्थङ्कर को ही मानना चाहिये, केवली को नहीं। इस के अतिरिक्त संघ रूपी तीर्थ के प्रस्थापक भी अर्हत् ही होते हैं। साधु-साध्वी तथा श्रावकश्राविका, इन चारों को चतुर्विध संघ कहा जाता है, जिसे अर्हत् तीर्थ रूप में स्वीकार करके स्वयं णमो तित्थस्स' कह कर अपनी योजनगामिनी देशना प्रारम्भ करते हैं। इस संघ की स्थापना अपने अपने शासन काल में स्वयं तीर्थङ्कर करते हैं। सामान्य केवली का यह सामर्थ्य नहीं। इन सभी उद्धरणों की देखते हुए यह कहा जा सकता है कि तीर्थङ्कर ही अर्हत् कहे जाने चाहिये सामान्य केवली नहीं। (5)अर्हत्की अलौकिकता, अनुपमता, अद्भुतता, अद्वितीयता एवं श्रेष्ठता जैन परम्परा अर्हत् परमेष्ठी तीर्थङ्कर को स्वीकार करती है, अन्य केवली आदि को नहीं। इस प्रकार अर्हत् परमेष्ठी के अन्तर्गत तीर्थङ्कर की ही अलौकिकता आदि का ग्रहण किया जाएगा। जैन परम्परा अर्हत् परमेष्ठी को मानवीय व्यक्तित्व के रूप में अंगीकार करती है। किन्तु ऐसे व्यक्तित्व की विकसित अवस्था अलौकिक, अनुपम, अद्भुत, अद्वितीय व श्रेष्ठतम स्वीकार करती है। अलौकिकता-अर्हत् परमेष्ठी का जन्म इस लोक में मानव स्थिति को प्राप्त होने पर भी अलौकिकता के साथ उनका जीवन प्रकाशित होता है। यह अलौकिकता हमें जैन परम्परा के प्राचीनतम ग्रन्थ आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कंध में प्राप्त होता है। उसमें अर्हत् परमेष्ठी के लिये उल्लेख कि चाहे अतीत में अर्हत् हुए हो या वे वर्तमान में विचरण कर रहे हो अथवा भविष्य काल में होने वाले हो, सभी अर्हत् की प्ररुपणा समान ही होगी। उनके वचन आदेश अलौकिक होंगे। आचाराङ्ग के द्वितीय श्रुतस्कंध में, कल्पसूत्र में, स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग तथा परवर्ती साहित्य में अलौकिकता वर्णित की गई है। यथा-अर्हत् परमेष्ठी की माता गर्भावक्रान्ति (च्यवन) के समय स्वप्नों को देखती है। 1. विशेषावश्यकभाष्य-७६६, भग. 1.1., 11 : 11, 165, 208, नाया, 1, 16, जम्बू प्र. 5, 112
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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