________________ (52) 2. अर्हत् ___यद्यपि ज्ञान तुल्यता में समकक्ष होने पर भी सामान्य केवली से अर्हत की कुछ अनूठी विशेषताएँ है, जो कि सामान्य केवली में नहीं। तीर्थकरों के जिननाम कर्म का बंध होता है, फलस्वरूप उनके कल्याणक महोत्सव देव, देवेन्द्र मनुष्यों द्वारा मनाये जाते हैं। यहां तक कि अर्हत् के जन्म के समय सर्वलोक में उद्योत होता है तथा प्राणिमात्र को सुखानुभूति होती है। क्या अर्हत् पद के अधिकारी तीर्थंकर ही होते हैं, सामान्य केवली नहीं? हम आगमिक सन्दर्भो में इसका अवलोकन करेंगे। चतुर्विशति स्तव अर्थात् लोगस्स सूत्र में उल्लेख है "लोगस्स उज्जोअगरे धम्मतित्थयरे जिणे। अरहंते कित्तइस्सं चउवीसंपि केवली।।"२ यहाँ स्पष्टरूप से चौबीस तीर्थकरों को ही जिन, केवली, तथा अर्हत् कहा गया है। इसी प्रकार शक्रस्तव अर्थात् नमुत्थुणं सूत्र में भी इसी प्रकार उल्लेख किया है "नमुत्थुणं अरहंताणं भगवन्ताणं। आइगराणं तित्थयराणं।"३ जो धर्म का आदि करने वाले तीर्थंकर, अर्हन्त भगवन्त हैं, उनको नमस्कार हो। 45 आगमों में से किसी भी आगम में गणधर, जम्बूस्वामी या अन्तकृत अथवा सामान्य केवली को अर्हत् विशेषण नहीं दिया गया। इस अवसर्पिणी में प्रथम केवली मरूदेवी माता हुई उनको भी अर्हत् विशेषण नहीं लगाया गया। सैद्धान्तिक अपेक्षा से भी अर्हत् पद मात्र तीर्थङ्कर के साथ ही ग्राह्य हुआ है। चौंतीस अतिशय', बारह गुण, वाणी के पैंतीस अतिशय', इनमें अर्हत् पद से तीर्थङ्कर प्रभु की महिमा का ही गुणगान हुआ है। अष्ट प्रातिहार्य, समवसरण की रचना, सुवर्ण कमलों पर पदन्यास, च्यवन के समय माता को दिव्यस्वप्न दर्शन', जन्म के 6 मास पूर्व ही देवों द्वारा रत्नों तथा सोनैयों का वर्षण, जन्मावसर पर इन्द्र का आसन चलायमान होना, छप्पन दिक्कुमारिकाओं द्वारा सूति कर्म करना, जन्माभिषेक हेतु शक्रेन्द्र का विकुर्वणा द्वारा पंच रूपों में मेरू गिरि पर ले जाकर 1. आव. चूर्णि पृ. 135, पण्णवणा 23. 2. आव. सूत्र अध्ययन 2 3. भगवती, 1.1., 2.1, 3.1. औपपातिक 87, कल्पसूत्र पृ. 3 4. आव. चूर्णि. पत्र 181 5. समवायाङ्ग 34.1 भगवती 9.33 6. ज्ञाताधर्मकथाङ्ग 9, भगवती 12.8, विशेषावश्यक 3049, 7. समवायाङ्ग 35.1 8. भग. वृत्ति 1.1 आव. चू. 182 9. नायाधम्मकहा 1.1.29, अंतगड-३.८, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति पंचम वक्ष