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________________ (363) पंच परमेष्ठी आत्माओं का एकमात्र उद्देश्य मानव का कल्याण करना है, इसलिये ये आत्माएँ प्राणिमात्र की उपकारी है। जनहितकारी इनकी क्रियाएँ बाधक न होकर हित साधक है। ये पंच परमेष्ठी कोई दैवी शक्ति नहीं, वरन् शुद्ध प्रवृत्ति करने वाले मानव ही हैं, जिनके समस्त क्रिया व्यापार मानव समाज के लिए किसी भी प्रकार पीड़ादायक एवं भारस्वरूप नहीं होते। ये विकार रहितसांसारिक प्रपंच से दूर रहने वाले महामानव हैं। इन महात्माओं ने अपने पुरुषार्थ द्वारा काम, क्रोध राग, द्वेष मोहादि विकारों को जीत लिया है। जिससे इनमें स्वाभाविक गुण प्रकट हो गये हैं। ये परमेष्ठी इसी प्रकार की शुद्धात्माएँ हैं, जिनमें रत्नत्रय युक्त आत्मिक गुणों का प्राकट्य हुआ है। यदि विश्व में इनके आदर्श का प्रचार ही नहीं, वरन् स्वीकार हो जाये तो आज जो भौतिक संघर्ष, परिग्रह-पिपासा आदि हैं, वे शान्त हो जाये। आणविक अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण तो दूर, इस धरा पर उनका नामों निशान मिट जाये। मैत्रीभावना का प्रचार होकर अहंकार, ममकार (ममता) आदि भी कोसों दूर चले जाय। स्पष्ट है कि विश्व के प्राणियों के लिए ये पंच परमेष्ठी महात्मा शान्तिदायक-सुखदायक है। जो कि किसी सम्प्रदाय और धर्म से भी परे हैं। मनोवैज्ञानिक उपयोगिता : व्यक्तित्व शुद्धि जैन परम्परा के पास नमस्कार मंत्र स्वरूप निहित ये पंच पद हैं, जो कि व्यक्तित्वरूपान्तरण में अनूठा व बेजोड़ साधन है। आश्चर्यजनक और अद्भुत घोषणा है इस मंत्र में कि "एसो पंच नमुक्कारो, सव्व पावप्पणासणो।" सब पापों का नाश करदे, ऐसा महामंत्र है नमोकार / भला नमस्कार मात्र से कैसे पाप नष्ट हो जायेंगे? वस्तुतः नमस्कार से सीधा पाप नष्ट नहीं होता। नमस्कार से आसपास एक विद्युत् वर्तुल रूपान्तरित हो जाता है। फलस्वरूप पाप करना असंभव हो जाता है। पाप करने के लिए व्यक्ति के आसपास एक विशेष प्रकार का आभामण्डल चाहिए। जिसके अभाव में पाप किया ही नहीं जा सकता। वह आभामण्डल ही रूपान्तरित हो जाये, तो असंभव हो जाएगा पाप करना। यह नमस्कार कैसे उस आभामण्डल को बदलता होगा? नमस्कार अर्थात् नमन का भाव। नमन का अर्थ है समर्पण। यहाँ 'नमो अरिहंताणं, अर्हन्तो को नमस्कार करता हूँ' यह शाब्दिक नहीं है। ये शब्द नहीं हैं-यह भाव है। अगर प्राणों में यह भाव सघन हो जाय कि अर्हन्तों को नमस्कार करता हूँ, तो उसका अर्थ हो जाता है-जो सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं, उनके चरणों में नमस्कार करता हूँ, अपने आपको समर्पित करता हूँ। उस समय तत्काल उसका अहंकार विगलित हो जाता
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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