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________________ (307) वैदिक परम्परा में गुप्ति वैदिक परम्परा में संन्यासी के लिए त्रिदण्डी शब्द भी व्यवहृत हुआ है। दत्त का इसके लिए.कथन है कि “त्रिदण्ड धारण करने मात्र से संयासी त्रिदण्डी नहीं हो जाता। वास्तव में जो आध्यात्मिक दण्ड धारण करता है, वही त्रिदण्डी है।" आध्यात्मिक दण्ड से मन-वचन-काया का नियन्त्रण ही अभिप्रेत है। - जैन परम्परा में जहां त्रिदण्ड, प्रयुक्त हुआ है उसी अर्थ व शब्द साम्य को वैदिक परम्परा ने भी धारण किया है। तुलनात्मक दृष्टिकोण से देखने पर जैन-बौद्ध एवं वैदिक तीनों ही परम्पराओं में समिति एवं गुप्ति का समानरूप से व्यवहार हुआ है। सामान्य भिन्नता को छोड़कर अर्थतः साम्य दृष्टिगोचर होता ही है। (7) अन्य दर्शनों में साधु एवं साधुत्व बौद्ध परम्परागत साधु की अवधारणा महात्मा बुद्ध प्ररूपित बौद्ध परम्परा में साधु पद के लिए भिक्षु समानार्थक शब्द प्रचिलित हुआ है। बौद्ध साधु को बौद्ध भिक्षु साधना से ही निर्वाण या आत्यन्तिक दु:खनिवृत्ति हो सकती है। निर्वाण प्राप्ति के लिए भिक्षुत्व अनिवार्य है। उपासक की साधना मात्र सुगति ही प्रदान कर सकती है, आत्यंतिक दुःखनिवृत्ति नहीं। भगवान बुद्ध ने स्पष्ट रूप से कहा है कि ऐसा कोई मनुष्य मेरे ख्याल में नहीं, जिसने गृहस्थ जीवन से आत्यन्तिक दुःख निवृत्ति प्राप्त की हो। गृहस्थ जीवन पूर्णसाधना के लिए अयोग्य है। इसीलिए उन्होंने अनेकानेक व्यक्तियों को प्रव्रज्या हेतु उत्साहित किया। बुद्ध के समय में विविध श्रमण और ब्राह्मण परिव्राजकगण थे। इन परिव्राजकगणों में अनेक अध्यात्मगवेषी कुलपुत्र घरबार का परित्याग करके, प्रवजित होकर कोई शास्त्र अथवा आचार्य के अनुशासन में ब्रह्मचर्यवास करते थे। परिव्राजकगणों में व्यापक नियम और प्रथाएँ समान थीं। विशुद्धि के प्रयत्न में सभी परिव्राजक संसारत्याग पूर्वक ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन करते थे और प्रायः सभी संगठनों में उपोसथ, वर्षावास आदि प्रथाएँ प्रचलित थी। परन्तु आहार-विहार, वेशभूषा आदि के नियमों का विस्तार भिन्न-भिन्न था। 1. दक्षस्मृत्ति 7.27.31, धर्मशास्त्र का इति. पृ. 494 2. तेविज्जवच्छगोतसुत्त, मज्झिम निकाय
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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