________________ (28) उपनिषद् में प्रयुक्त परमेष्ठी पद वैदिक साहित्य में उपनिषदों को वेदान्त कहा जाता है। अध्यात्म की पराकाष्ठा की तुला पर इसे तोला गया है। यद्यपि उपनिषदों की संख्या बहुत है, तथापि यहाँ पर अपेक्षित उपनिषदों मात्र का कथन किया है। जहाँ जहाँ पर 'परमेष्ठी' पद का निर्देश किया है, उस पर हम दृष्टिपात करेंगे। प्राचीनता की दृष्टि से बृहदारण्कोपनिषद् विशाल एवं प्राचीन है। इसमें 'परमेष्ठी' पद का निर्देश दो स्थलों पर एक समान किया है, "परमेष्ठिनः परमेष्ठी ब्रह्मणो ब्रह्म स्वयंभु ब्रह्मणे नमः" यहाँ ब्रह्म को परमेष्ठी पद से अलंकृत करके नमस्कार किया है। ___नारद परिव्राजकोपनिषद् में नारद शंका समाधान हेतु पितामह ब्रह्मा के पास जाते हैं। पितामह ब्रह्मा समाधान करते हुए परिव्राज्य स्वरूपक्रम को नारद से कहते हैं ऐसा उल्लेख किया गया है। यहाँ इस उपनिषद् में ब्रह्मा को परमेष्ठी-पद पर अध्यारूढ़ किया है। कैवल्योपनिषद् में भी ब्रह्मा को परमेष्ठी अर्थ परक लेते हुए कथन किया है कि, 'अश्वलायन ऋषि भगवन् परमेष्ठी ब्रह्मा के पास आकर कहने लगे। जहाँ इन उपनिषदों में परमेष्ठी संज्ञा से ब्रह्मा अर्थ लिया है, वहाँ अन्य स्थल पर विष्णु अर्थ घटन भी किया है। महोपनिषद् में विष्णु अर्थ का उल्लेख किया गया ब्रह्मा-विष्णु के साथ-साथ प्रजापति को परमेष्ठी-संज्ञा से भी अभिहित किया है। अव्यक्तोपनिषद् तथा जैमिनीय उपनिषद् में परमेष्ठी-प्रजापति को कहा गया है। __ ब्रह्मा, विष्णु तथा प्रजापति इन तीनों को परमेष्ठी पद में घटित करने का हेतु यही हो सकता है कि ये देव-तत्त्व में अधिष्ठित हैं। देव-तत्त्व में प्रतिष्ठित होने से इनकी परम पद में स्थिति होनी भी आवश्यक है। जो परम पद में स्थित है, परमात्मा स्वरूप है। स्वाभाविक है कि परम-उच्चावस्था को प्राप्त, परम-पद में स्थित होगा ही। 1. बृहदारण्यक उ. 4.6.3, 2.6.3. 2. नारद परि. उ. 2.8.1. 3. कैवल्योपनिषद् -1.1. 4. 1. अव्यक्तोपनिषद् 2. जैमिनीय उपनिषद् 3.7. 3. 2, 3. 7. 3. 3.