________________ (272) आचार्य उमास्वाति' ने हिंसा का स्वरूप दर्शाया है-प्रमत्तयोग से होने वाला प्राणवध हिंसा है। यहाँ हिंसा की व्याख्या 2 अंशों में दी गई। प्रमत्तयोग अर्थात् रागद्वेषयुक्त अथवा असावधान प्रवृत्ति और दूसरा है प्राणवध। पहला अंश कारण रूप है और दूसरा कार्यरूप। इससे वही फलित होता है कि जो प्राणवध प्रमत्तयोग से हो, वह हिंसा है। यहाँ हिंसा की व्याख्या में मात्रवध ही पर्याप्त नहीं, वरन् 'प्रमत्तयोग' भी इसमें महत्त्वपूर्ण है। किन्तु यदि प्रमत्तयोग के बिना प्राणवध हो तो वह हिंसा नहीं? तो इसका समाधान है कि केवल प्राणवध स्थूल होने से दृश्य-हिंसा तो है ही, जब कि प्रमत्तयोग सूत्र होने से अदृश्य है। उसी पर हिंसा की सदोषता या निर्दोषता निर्भर करती है। हिंसा की सदोषता हिंसा भावना पर अवलम्बित है। भावना स्वयं बुरी है, तभी प्राणवध दोष होगा। इस प्रकार प्रमत्तयोगरूप जो सूक्ष्म भावना है, वह स्वयं ही सदोष है। ___ आचाराङ्ग में आठ हेतु हिंसा के लिए उल्लिखित हैं कि मनुष्य' 1. अपने इस जीवन के लिए 2. प्रशंसा व यश के लिए 3. सन्मान की प्राप्ति के लिए 4. पूजा आदि पाने के लिए 5. जन्म-सन्तान आदि के जन्म पर अथवा स्वयं के जन्म निमित्त 6. मरण-मृत्यु संबंधी कारणों व प्रसंगों पर 7 मुक्ति की प्रेरणा या लालसा से 8. दुःख के प्रतिकार हेतु-रोग, आतंक, उपद्रव आदि मिटाने के लिए। साधु इन हिंसा के कारणों का त्याग करके स्थावर व त्रस षड्जीवनिकाय के जीवों की हिंसा न करें। आचाराङ्ग के इस सन्दर्भ से ज्ञात होता है। कि मनुष्य किन कारणों से हिंसाकार्य में प्रेरित होता है। मुनि के लिए इन हिंसा के हेतुओं को सर्वथा त्याज्य कहा गया है। सामान्य साधु को सर्वप्रथम स्व हिंसा और साथ ही पर हिंसा से विरति धारण करनी पड़ती है। काम, क्रोध, मोह, लोभ, राग, द्वेषादि दूषित मनोवृत्तियों के वशीभूत होकर आत्मा के ज्ञानादि स्वगुणों का विनाश करना स्वहिंसा है, तो अन्य प्राणियों को पीड़ा देना, दुःखी करना, हानि पहुँचना पर हिंसा है। साधु को परहिंसा से विरत तो होना ही है साथ ही स्वहिंसा से भी विरति ले लेना है। जगत् के सर्व प्राणियों (त्रस-स्थावर) की हिंसा का पूर्णरूपेण त्याग करना, यह साधु का प्रथम कर्तव्य है। आचाराङ्ग में स्पष्टतः निर्दिष्ट है कि मुनि षनिकाय के जीवों का हिंसादि समारंभ न करे, न करवाये, न करते हुए का अनुमोदन करे। 1. तत्त्वार्थ सूत्र 7.8 पृ. 172 2. आचार 1 श्रु. 1 अध्य. 1-8 उद्देशक 3. आचा. 1.1.7.62