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________________ (206) समवायांग' एवं नंदीसूत्र में उसका स्पष्ट उल्लेख है कि 'द्वादशांगभूत गणिपिटक कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, कभी नहीं है और कभी नहीं होगा, यह भी नहीं। वह था, है और होगा। वह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है नित्य है।' अंगबाह्य श्रुत वह होता है1. जो स्थविर कृत होता है 2. जो बिना प्रश्न किये तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित होता है। वक्ता के भेद की दृष्टि से भी अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ये दो भेद किये गये है। जिन आगम के मूलवक्ता तीर्थंकर हो और संकलनकर्ता गणधर हों, वह अंगप्रविष्ट है। पूज्यपाद ने वक्ता के तीन प्रकार बताए हैं-(1) तीर्थंकर (2) श्रुतकेवली (3) आरातीय। आचार्य अकलंक ने कहा हैं कि आरातीय आचार्यों के द्वारा निर्मित आगम अंग प्रतिपादित अर्थ के निकट या अनुकूल होने के कारण अंगबाह्य कहलाते हैं। आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य में अंग अर्थात् अंगप्रविष्ट तथा अनंग अर्थात् अंगबाह्य का विश्लेषण करते हुए लिखा है"गणधरकृत व स्थविरकृत, आदेशसृष्ट (अर्थात तीर्थङ्कर प्ररूपित त्रिपदी जनित) व उन्मुक्त व्याकरण प्रसूत (अर्थात् विश्लेषण-प्रतिपादनजनित) ध्रुव, नियत व चल-अनियत, इन द्विविध विशेषताओं से युक्त वाङ्मय अंगप्रविष्ट तथा अंगबाह्य नाम से अभिड़ित है।" इससे तात्पर्य यह है कि गणधरकृत, आदेशजनित तथा ध्रुव; ये विशेषण अंगप्रविष्ट से सम्बद्ध हैं, तथा स्थविरकृत, उन्मुक्त व्याकरण प्रसूत और चल ये विशेषण अंगबाह्य के लिए हैं। __ अंगबाह्य श्रुत दो प्रकार का है- (1) सामायिक आदि छः प्रकार का आवश्यक (2) तद्व्यतिरिक्त। आवश्यक-व्यतिरिक्त श्रुत भी दो प्रकारका है(1) कालिक (2) उत्कालिक। 1. समवायांग सम. 148 2. नंदीसूत्र 57 3. तत्त्वार्थभाष्य 1.20 4. सर्वार्थ सिद्धि 1.20 5. रजवार्तिक 1.20 6. विशेषावश्यकभा. गा. 550 7. नंदीसूत्र 57
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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