________________ (199) पाहण ने पल्लव आणे उपाध्याय मूर्ख शिष्यों को भी विद्या के स्वामी बनाने में रत एवं प्रयत्नशील होते हैं / इस प्रक्रिया में उनके लिए उपमा दी गई है कि वे पाषाण-पत्थर पर पल्लव-अंकुर उगाने का कार्य करते हैं। पत्थर पर अंकुर उगाना अत्यन्त दुष्कर कार्य है, तद्भांति उपाध्याय प्रवर का यह ज्ञान-दान कार्य अत्यन्त दुष्कर है। उनमें (1) स्वाध्याय-मग्नता (2) सूत्रार्थदान-प्रवीणता (3) सूत्रार्थ-विचार रसिकता, होने से वे जगत्पूज्य बनते हैं। बावना चन्दन रस सम वयणे अहित ताप सवि टाले जीवों के समस्त अहित और समस्त ताप को उपाध्याय बावना चन्दन के रस सदृश वचन से शमन करते हैं। बावना चन्दन के रस की एक बूंद यदि तप्त लोहे के गोले पर पड़े तो वह लोहा एकदम शीतल हो जाता है, उसी प्रकार उपाध्याय के मुखरित वचनों से आत्मा की गरमी शांत हो जाती है अर्थात् आत्मा के अहित की, अकल्याण की जो गरमी है, ताप है वह शमन हो जाती है। उपाध्याय भगवंत के मुख से सूत्रार्थ-आगम के वचनों का पान करके श्रोता आत्मा के हित-अहित का ज्ञाता बनता है। रागद्वेष आदि कषाय के दुर्ध्यान से तथा असद् विकल्पों के ताप से जन्य आकुलता-व्याकुलता उपाध्याय प्रवर के वचन से शांत हो जाते हैं। उपाध्याय-सूत्र सिद्धान्तों के पाठक जैन संघ में आचार्य के पश्चात् दूसरा स्थान उपाध्याय का है। समस्त श्रुतज्ञान का अधिकारी, संयम-योग से अलंकृत, सूत्र और अर्थ दोनों का सम्यग्ज्ञाता, आचार्य पद भी योग्यता का धारक साधक उपाध्याय पद के योग्य होता है। वह श्रमणों को सूत्र की वाचना देते हैं। सूत्र-अर्थ के ज्ञाता-दर्शनचारित्र की साधना में तत्पर शिष्यों को श्रुतसम्पन्न बनाने में कुशल उपाध्याय होते हैं। आचार्य भद्रबाहू ने आवश्यक नियुक्ति में उल्लेख किया है कि जिन भगवान द्वारा प्ररूपित बारह अंगों का जो उपदेश करते हैं, वे उपाध्याय है। आचार्य हरिभद्र का कथन है कि जिनके पास श्रमण सूत्रों का अध्ययन करते 1. व्यवहारभाष्य पृ. 134 2. आव. नि. गा. 997 3. उपेत्य अधीयतेस्मात् साधवा सूत्रमित्युपाध्यायः आव. हारिभद्रीयावृत्ति पृ. 883