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________________ (180) हैं? सर्व शंका अर्थात् समस्त द्वादशांग गणिपिटक प्राकृत भाषा में ही बना है अथवा किसी कुशल व्यक्ति द्वारा कल्पित है, इस प्रकार की शंका सर्व शंका है। इस प्रकार शंका न करके निःशंक रहना दर्शन का आचार है। (2) निष्कांक्षित-अर्थात् कांक्षा रहित होना / कांक्षा के दो अर्थ हैं (1) 'करवा अण्णोण दंसणग्गाहो' अर्थात् अन्य अन्य एकान्त दृष्टिवाले दर्शनों की अभिलाषा करना, उनको स्वीकार करने की इच्छा करना। (2) धर्माचरण के द्वारा सुख समृद्धि पाने की इच्छा करना इन दोनों प्रकार की इच्छाओं से रहित होना ही दर्शन का आचार है। (3) निर्विचिकित्सा-इसके दो अर्थ किये हैं। - 1. धर्म के फल में संदेह करना 2. जुगुप्सा-घृणा। यह कार्य होगा या नहीं? प्रत्यक्ष में यह ऐसा है, परोक्ष में इस का फल मिलेगा या नहीं? यह विचिकित्सा है। वितिगिच्छा अर्थात् मति का विप्लव होना। जैसे यह स्थाणु है या पुरुष है? इसका त्याग अथवा रहित होना विचिकित्सा है। 2. जो साधु के मलिन पात्र उपकरण आदि देखकर निन्दा, गर्दा करे वह विचिकित्सा है। पूर्व से यह विशेष है। (4) अमूढदृष्टि-अर्थात् मोहमयी दृष्टि। परवादी या एकान्तवादी तीर्थकों की विभूति, ऋद्धि, पूजा, समृद्धि देखकर आकर्षित होना या मोह उत्पन्न होना मूढ़ता है। उस मूढ़ता का अभाव होना अमूढदृष्टि होना दर्शन का आचार है। (5) उपबृंहण-संघदासगणि ने इसकी व्याख्या की है "तपस्वी की वैयावृत्य करना तथा विनय सज्झायादि से युक्त देखकर प्रशंसा करना वह उपबृंहण है। प्रशंसा करना, श्लाघा-श्रद्धा करना उपबृंहण है। अन्यत्र इसका अर्थ किया है पुष्टि करना। वसुनन्दि श्रावकाचार में इसके स्थान पर उपगूहन शब्द प्रयुक्त किया गया है, जिसका अर्थ है- प्रमादवश हुए दोषों का प्रचार न करना व अपने गुणों का गोपन करना। जबकि अमृत चन्द्राचार्य इसे उपबृंहण का ही प्रकार कहते हैं। १.नि. भा. गा. 24 2. तत्त्वार्थवृत्ति 7.23, पुरुषार्थसिद्धयुपाय 24. 3. नि. भा. 26, प्रव. सारो. 268 वृत्ति पत्र 64, पुरुषा 25, रत्न क. श्रा. 1.13 4. नि. भा. 26, श्रावक ध, प्र. 68-60 5. नि.भा. गा. 25 6. वसु. श्रा. 48 7. पुरुषा. 26
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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