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________________ (146) का फल भोगना पड़ता है। जब ज्ञान द्वारा पाप और पुण्य अदृश्य हो जाते हैं, तब आत्मा को शरीर धारण करने का कोई कारण रह नहीं जाता। शरीर से सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। फलतः सभी दुःख समाप्त हो जाते हैं और वह मुक्त हो जाती है। इस प्रकार मीमांसा दर्शन भी दुःख निवृत्ति मोक्ष स्वीकार करता है। (3) न्याय-वैशेषिक दर्शन में मोक्ष __ अब हम मोक्ष स्वरूप विवेचन न्याय-वैशेषिक दर्शन के सन्दर्भ में करेंगे। जैसा कि पूर्व पृष्ठों में हमने जाना कि न्याय एवं वैशेषिक की पदार्थ विषयक तत्त्व की विचारणा के अतिरिक्त अन्य विचारणा में मतऐक्य है। इसी प्रकार मोक्षसिद्धान्त में भी उनकी मत-एकता झलकती है। न्याय सूत्रकार गौतम ने मोक्ष की व्याख्या करते हुए कहा है कि "दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति ही मोक्ष है। यहाँ आत्यन्तिक से तात्पर्य है कि पुनः उसका प्रादुर्भाव असंभव है। यह तब संभवित हो पाता है जब 21 प्रकार के दुःखों का नाश हो। दुःख के 21 प्रकार हैं-1 शरीर + 6 इन्द्रियाँ + 6 इन्द्रिय विषय + 6 प्रत्यक्षबुद्धि + 1 सुख + 1 दुःख। शरीर दुःखभोग का आयतन है, इन्द्रियाँ, विषय तथा प्रत्यक्षबुद्धि दुःख के साधन हैं, सुख स्वयं दुःख से अवश्य संबद्ध है, अतः दुःखरूप है एवं दुःख तो स्वरूप से ही दुःख है। " वैशेषिक सूत्रकार कणाद भी इसी प्रकार स्वीकारते हैं कि आत्मा के धर्माधर्मरूप अदृष्ट का सम्पूर्ण नाश होने पर उस आत्मा के शरीर आदि के साथ विशिष्ट संयोग का नाश होता है। यह संयोग पुनः कभी उत्पन्न होता नहीं, यही मोक्ष है। इससे यही फलित होता है कि दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति ही मोक्ष है।। मुक्तात्मा में ज्ञान का अभाव-इनके अनुसार मुक्तात्मा में ज्ञानादि विशेष गुणों का अभाव होता है, क्योंकि आत्मा में उसके विशेष गुणों की उत्पत्ति के लिए शरीर के साथ आत्मा का संयोग अत्यन्त जरूरी है। इसी से महर्षि कणाद के वचन के हार्द को स्पष्ट करते हुए वैशेषिकाचार्यों का कथन है कि आत्मा के नौ विशेष गुणों का अत्यन्त उच्छेद ही मुक्ति है। इसका कारण यह है कि विशेषगुण अनित्य है। अतः इनका नाश होता है किन्तु द्रव्य रूप आत्मा तो निर्विकार नित्य है। यह विशेषगुणों से भिन्न है। जब इन विशेष आत्मगुणों का उच्छेद होता है तभी उसका स्वरूप में अवस्थान होता है। 1. तदत्यन्तविमोक्षोपवर्गः न्याय सूत्र 1.1.22 2. न्याय वार्तिक 1.1.1. 3. तद्भावे संयोगाभावोप्रादुर्भावश्च मोक्षः- वै. सू. 5.2.18. 4. नवानामात्मविशेषगुणानामत्यन्ताच्छितिर्मोक्षः व्योमवती पृ. 638 5. कन्दली पृ. 692, न्याय वा. ता. टीका 1.1.22
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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