________________ (127) इस प्रकार यहाँ हल्के होने से तुंबडे, एरण्डादि के फल, धनुष का तीर, अग्नि, धूम तथा कुंभार के चक्र के दृष्टान्त से सिद्धात्मा की उर्ध्वगति रूप स्वभाव को सिद्ध किया गया है। यद्यपि अमूर्त सिद्ध आत्मा अक्रिय है, क्रियाशील नहीं होता। इसमें हेतु कर्म-क्षय है तथापि कर्ममुक्तता एवं उर्ध्वगमन रूप स्वभाव के कारण वह लोकान्त पर जाकर स्थित हो जाता है। उसके आगे अलोक होने से वहाँ गमन संभव नहीं। ___ अलोक में गमन क्यों नहीं होता? यह शंका होना स्वाभाविक है, तो इसका समाधान है कि गति में सहायक धर्मास्तिकाय है एवं स्थिति में सहायक अधर्मास्तिकाय है। षड् द्रव्यों की विद्यमानता लोकाकाश में ही है, अलोक में नहीं। अतः सिद्ध जीवों की गति अलोक में संभव नहीं। इस प्रकार मुक्तात्माओं का उर्ध्वगमन यहाँ सिद्ध किया गया है। सिद्धों का अनुपरागमन जिसमें रहा जाता है उसे स्थान कहा जाता है, इस व्युत्पत्ति से स्थान शब्द अधिकरण वाची है। अतः सिद्ध का स्थान सिद्धस्थान कहा जाता है। यहाँ शंका होती है वहाँ से सिद्ध का पतन होना चाहिये। क्योंकि जैसे पर्वत अथवा वृक्ष के अग्रभाग पर से देवदत्त का अथवा फल का पतन होता है, उसी के सदृश सिद्धों का भी सिद्धस्थान से पतन होना चाहिए। क्योंकि हर एक का जिसका जो स्थान हो उसका उस स्थान से पतन दृष्टिगत होता है। अतः सिद्ध का भी पतन होना चाहिए। ___ यहाँ इसका समाधान भाष्यकार करते हैं कि 'सिद्ध का स्थान' इस पद में कर्ता के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है, इससे सिद्ध जहाँ अवस्थित हैं, वह स्थान सिद्ध से अर्थान्तर-भिन्न ऐसा स्थान नहीं समझना चाहिये। अथवा वह स्थान यदि अर्थान्तर भी माना जाए तो भी सिद्ध का पतन होना योग्य नहीं, क्योंकि वह स्थान आकाश की तरह नित्य होने से उसका विनाश नहीं होता और विनाश न होने से मुक्त का भी नहीं होता। क्योंकि आत्मा का पतन आदि क्रियाओं में कर्म ही कारण है। और जब कर्म का ही मुक्तात्माओं में अभाव है, तो पतन संभव नहीं होता। वस्तुतः अपने प्रयत्न की प्रेरणा-आकर्षण-विकर्षणगुरुत्व आदि पतन के कारण हैं, वे भी मुक्तात्मा में नहीं होते अतः उनका पतन कैसे हो? 1. वही 1850-1855